________________
·
५१८
जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ चतुर्थी का पर्वाराधन
प्रगाढ़ निष्ठा तथा भक्ति रखता था । संयोगवश कालकाचार्य का उपदेश सुन कर वह प्रतिबुद्ध एवं संसार से विरक्त हो उन्हीं के पास दीक्षित हो गया। इसके फलस्वरूप बलमित्र और भानुमित्र ने रुष्ट होकर कालकाचार्य को वर्षाकाल में ही उज्जयिनी ( भडोंच) से विहार करने के लिये बाध्य किया । प्रशासन की ओर से उत्पन्न की गई प्रतिकूल परिस्थिति में प्राचार्य कालक ने अपने शिष्य-समूह सहित उज्जयिनी (भडोंच) से प्रतिष्ठानपुर की भोर विहार किया ।
।
प्राचार्य के प्रति उनकी प्रति प्रबल ईर्ष्या उत्पन्न
वर्षाकाल में विहार करने जैसी प्रतिकूल विकट परिस्थिति का अन्य प्राचार्य एक दूसरा ही कारण बताते हैं। उनका कहना है कि आचार्य कालक के भागिनेय होने के कारण बलमित्र - भानुमित्र अपने मातुल प्राचार्य के प्रति प्रान्तरिक श्रद्धाभक्ति रखते और उनका अत्यधिक श्रादर-सम्मान करते थे निस्सीम श्रद्धा देख कर पुरोहित के मन में प्राचार्यश्री के हुई और वह राजा तथा युवराज के सम्मुख बार-बार यह कह कर कि - ये वेदबाह्य हैं, पाषंडी हैं, उनकी निन्दा करता रहता था । धार्मिक असहिष्णुता से प्रेरित हो पुरोहित ने एक दिन बलमित्र - भानुमित्र के समक्ष आचार्य कालक के साथ सैद्धान्तिक चर्चा प्रारम्भ की। आचार्य ने प्रश्नोत्तर में पुरोहित को निरुत्तर श्रीर हतप्रभ कर दिया । अपनी इस पराजय से पुरोहित के अन्तर में प्राचार्य के प्रति विद्वेषाग्नि भड़क उठी । पुरोहित ने उपयुक्त अवसर देख कर राजा को श्राचार्य Saree के प्रति भड़काते हुए कहा - "राजन् ! ये ऋषि बड़े प्रतापी, पुण्यात्मा और महान तपस्वी हैं । जिस मार्ग से ये जाते हैं, उस मार्ग से किसी राजपुरुष को नहीं चलना चाहिये । उस मार्ग से चलने पर उनके चरणचिन्हों पर पैर गिरना संभव है । गुरु चरणों पर पैर गिरने से राज्य में दैवी प्रकोप आदि के रूप में प्रशिव व्याप्त हो सकता है । अतः राज्यहित और जनहित में इन्हें यहां से विदा कर देना ही श्रेयस्कर है ! ".
इस प्रकार कारणान्तर से चातुर्मासावधि में ही आचार्य कालक ने वहां से प्रतिष्ठानपुर की ओर विहार कर दिया और प्रतिष्ठानपुर के श्रमणसंघ को संदेश पहुँचाया कि वे पर्यूषण पर्वाराधन से पूर्व ही प्रतिष्ठानपुर पहुंच रहे हैं अतः पर्वाराधन सम्बन्धी आवश्यक कार्यक्रम उनके वहां पहुंचने के पश्चात् निश्चित किया जाय ।
प्रतिष्ठानपुर का राजा सातवाहन जैनधर्मावलम्बी और परम श्रद्धालु श्रमणोपासक था । वह वहां के संघ, राजन्यवर्ग, भृत्यगरण, परिजन एवं प्रतिष्ठित पौरजनों सहित स्वागतार्थं प्राचार्यश्री के सम्मुख पहुँचा और बड़े ही आदर-सत्कार एवं उल्लास के साथ कालकाचार्य का नगर प्रवेश हुआ ।
नगर में पहुँचने के पश्चात् ग्रार्य कालकाचार्य ने संघ के समक्ष कहा कि भाद्रपद शुक्ला पंचमी को सामूहिक रूप से पर्यूषण पर्वाराधन किया जाय । श्रमणोपासक संघ ने आचार्य के इस निर्देश को स्वीकार किया परन्तु उसी समय राजा
सातवाहन ने कहा - "भगवन्! पंचमी के दिन लोकपरम्परानुसार मुझे इन्द्र
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org