________________
जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [कालकाचार्य (द्वितीय) वर्तमान में जो वीर नि० सं०, विक्रम सं० और शक सं० प्रचलित हैं, वे पूर्ण प्रामाणिक होने के साथ-साथ परस्पर एक-दूसरे से पूरी तरह तालमेल रखते हैं। इन तीनों ही संवतों की प्रामाणिकता को सिद्ध करने में सबसे अधिक सहायक एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण यदि कोई उल्लेख है, तो वह विचारश्रेणी का निम्नलिखित उल्लेख है :
ज रणि कालगो अरिहा तित्थंकरो महावीरो। तं रयरिणमवंतिवई अहिसित्तो पालो राया ।। सट्ठी पालगरण्णो, पणवनसयं तु होइ नंदाणं । अट्ठसयं मुरियाणं, तीसंचिय पूसमित्तस ।। बलमित्त भानुमित्ताण सट्ठि वरिसारिण चत्त नहवहरण।
तह गद्दभिल्लरज्जं, तेरस वासे सगस्स चउ ।। इन गाथामों के अनुसार भगवान् महावीर के निर्वाण को प्राप्त होने के पश्चात निम्नलिखित राजाओं का उनके नाम के आगे उल्लिखित वर्षों तक राज्य रहा :
६० वर्ष नन्दवंश
१५५ ॥ मौर्यवंश पुष्यमित्र बलमित्र-भानुमित्र नभोवाहन गर्दभिल्ल
पालक
१०८ ॥
६०
४०
पूर्ण योग ४७० वर्ष इसके पश्चात् 'विचारश्रेणी' में निम्नलिखित उल्लेख किया गया है :
तदनु विक्रमादित्यः धर्मादित्यः भाइल्लः नाइल्लः नाहहः
उभयं (ऊपर के ४७० और ये १३५) तदनु शाकसंवत्सरप्रवृत्तिः । उक्तच -
श्रीवीरनिर्वृतेर्वषः षड्भिः पत्रोत्तरः शतैः । शाक संवत्सरस्यैषा, प्रवृत्तिभरतेऽभवत् ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org