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कालकाचार्य (द्वितीय) ]
दशपूर्वर- काल : आर्य समुद्र
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इसकी पुष्टि 'तिलोयपण्णत्ती,' 'त्रिलोकसार' आदि दिगम्बर परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों द्वारा भी की गई है । "
उपरोक्त उल्लेखों से यह निर्विवादरूपेण सिद्ध हो जाता है कि वीर नि० सं० ४६६ में गर्दभिल्ल को राज्यच्युत कर उज्जयिनी राज्य पर अधिकार करने वाले शकों को विक्रमादित्य ने वीर नि० सं० ४७० में पराजित किया । इसी वर्ष प्रर्थात् वीर नि० सं० ४७० में उज्जयिनी के राज्यसिंहासन पर श्रारूढ़ होते ही विक्रमादित्य ने अपने नाम का संवत्सर प्रवृत्त किया ।
यह सम्भव है कि विक्रमादित्य द्वारा प्रचलित किया गया यह संवत्सर प्रारंभ में उज्जयिनी राज्य तक ही सीमित रहा हो और शकों को भारत के सम्पूर्ण भूभाग से बाहर खदेड़ने तथा भारत के अनेक पड़ोसी राज्यों को अपने शासन के अन्तर्गत ला वृहत्तर भारत का निर्माण करने के पश्चात् उसने पूर्वप्रचालित संवत्सर ही विधिवत् अपने सम्पूर्ण साम्राज्य में मान्य करने की घोषणा की हो। इस प्रकार की घोषणा का काल वीर नि० सं० ४७० से १७ अथवा १३ वर्ष पश्चात् का हो सकता है, न कि संवत्सर - प्रवर्तन का । डिमिट्रियस मीनाण्डर, यूक्रेडा इटीज और अन्य शकों द्वारा भारत के अनेक भागों पर किये गये श्राधिपत्य को हटाने में विक्रम को १३ अथवा १७ वर्ष अवश्य ही लगे होंगे। हमारे अनुमान से उपरोक्त दोनों गाथाएं विक्रम द्वारा की गई इस प्रकार की उद्घोषरणा की मोर ही संकेत करती हैं ।
ऐसी स्थिति में एक प्रकार से निश्चित रूपेण यह कहा जा सकता है कि निशीथचूरिकार को, बलमित्र भानुमित्र का भडोंच के स्थान पर उज्जयिनी में राज्य होने का और वहां स तन्निमित्त से प्रायं कालक के विहार का उल्लेख करने प्रवश्य कोई भ्रांति हुई हो ।
पंचमी के स्थान पर चतुर्थी का पर्वाराधन
प्रार्य कालक ने पंचमी के बदले चतुर्थी को पर्यावरण पर्व का प्राराधन प्रचलित किया इस घटना का विवरण देते हुए निशीथचूर्णी में निम्न प्रकार से उल्लेख किया गया है :
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"अनेक क्षेत्रों में विचरण करते हुए प्रार्य कालक उज्जयिनी ( भडोंच) पधारे. और वहां वर्षावास किया। उस समय वहां बलमित्र का राज्य था और उनके अनुज भानुमित्र युवराज थे ।
बलमित्र - भानुमित्र की एक बहिन थी जिसका नाम भानुश्री था । भानुश्री का पुत्र बलभानु प्रकृति से बड़ा ही सरल एवं विनीत था और साधुनों के प्रति
" जैनधर्म का मौलिक इतिहास, भाग १, पृ. ५४५
कारणिया चउत्थी प्रज्ज कालगायरिएण पवत्तिया । [निशीयचूर्णी, भा० ३ १० १३१]
[ कालकाचार्य कथा ]
3 बलमित्त भाणुमित्ता, प्रासि भवंतीइ रायजुवराया | निय भाणिज्जति तया, तत्य गम्रो कालगायरियो ।। ६४ ।।
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