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चतुर्थी का पर्वाराधन] दशपूर्वघर-काल : पायं समुद्र
५२१ ___ इस गाथा के अनुसार भी द्वितीय कालकाचार्य का अस्तित्व वी०नि० सं० ४५३ में होना सुनिश्चित रूप से सिद्ध होता है।
कालकाचार्य (द्वितीय) स्वर्णभूमि में अपनी आयु के अन्तिम चरण में एक समय प्राचार्य कालक (द्वितीय) अपने सुविशाल शिष्य-परिवार के साथ उज्जयिनी में विचर रहे थे। वृद्धावस्था होते हुए भी वे अपने शिष्यसमूह को प्रागम-वाचना देने में सदा तत्पर रहते थे। उन्हीं दिनों प्रार्य कालक के प्रशिष्य प्रार्य सागर जो कि सूत्रार्थ के अच्छे शाता थे - स्वर्णभूमि में विचरण कर रहे थे।
____ अपने समीपस्थ शिष्यों में प्रागमों के अध्ययन के प्रति यथेष्ट रुचि और. तत्परता का अभाव देख कर प्राचार्य कालक एक दिन बड़े खिन्न हुए। वे सोचने लगे - "ये मेरे शिष्य मनोयोग से अनुयोगश्रवण नहीं कर रहे हैं । ऐसी दशा में इनके बीच ठहरने से क्या लाभ ? मुझे उसी स्थान पर रहना चाहिये जहां कि अनुयोगों की प्रवृत्ति अच्छी तरह से हो रही हो। संभव है, मेरे अन्यत्र चले जाने पर शिष्य भी लज्जित होकर अनुयोग ग्रहण करने के लिये उत्साहित हो जायं।"
ऐसा विचार कर मार्य कालक ने शय्यातर से कहा- "मैं स्वर्णभूमि की पोर जा रहा हूं। तुम मेरे शिष्यों को अनायास ही यह बात मत बताना । जब ये अत्यधिक प्राग्रह करें तो कह देना कि प्राचार्य स्वर्णभूमि में सागर के पास गये हैं।"
. इस प्रकार शय्यातर को अवगत कर रात्रि में शिष्यों के जागृत होने से पहले ही कालकाचार्य स्वर्णभूमि की ओर प्रस्थित हुए और स्वर्णभूमि में पहुंच कर सागर के गच्छ में प्रविष्ट हो गये। आर्य सागर ने भी- “यह कोई खंत है" ऐसा समझ कर उपेक्षा से अभ्युत्थानादि नहीं किया।
अर्थ-पौरुषी के समय तत्वों का व्याख्यान करते हुए प्राचार्य सागर ने नवागन्तुक वृद्ध साधु (कालकाचार्य) से पूछा – “खन्त ! क्या तुम यह समझते हो?"
प्राचार्य ने उत्तर दिया - "हाँ ।”
सागर ने सगर्व स्वर में - "तो फिर सुनो" - यह कह कर अनुयोग प्रारम्भ किया।
उधर उज्जयिनी में रहे हए शिष्यों ने जब प्राचार्य को नहीं देखा पौर सब ओर ढूंढने पर भी उन्हें नहीं पाया तो उन्होंने शय्यातर से प्राचार्य के सम्बन्ध में पूछा।
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