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कालकाचार्य (द्वितीय)]
दशपूर्व घर काल : प्रार्य समुद्र
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४५७ में मान लिया गया। यह पहले बताया जा चुका है कि वीर नि० सं० ४५३ में प्रार्य कालक को प्राचार्य पद प्रदान किया गया था ।
वीर नि० सं० ४५७ और ४७० के बीच सम्भवतः तालमेल बैठाने के लिए निम्नलिखित गाथा का उपयोग किया गया, जो कि विचारश्रेणी में उल्लिखित है :
विक्कम रज्जारणंतर सतरसवासेहिं वच्छरपवित्ती
उज्जयिनी के राज्य पर आसीन होने के १७ वर्ष पश्चात् विक्रम द्वारा विक्रम संवत्सर प्रचलित किये जाने की बात भी कालगणना को दृष्टि से ठीक नहीं बैठती । यदि वीर नि० सं० ४५७ में राजसिंहासन पर आरूढ़ होने के १७ वर्ष पश्चात् विक्रम द्वारा संवत्सर प्रचलित करने की बात मानी जाय तो विक्रम द्वारा संवत्सर प्रवर्तन का काल भगवान् महावीर के निर्वारण के ४७० वर्ष पश्चात् नहीं अपितु ४७४ वर्ष पश्चात् का ठहरता है ।
इस वैषम्य को हल करने वाली एक अन्य गाथा विचारश्रेणी के परिशिष्ट में मुनि जिनविजयजी ने दी है
विक्कम रज्जारणंतर तेरसवासेसु वच्छरपवित्ती ।
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इस गाथा में बताया गया है कि विक्रम ने सिंहासनारूढ़ होने के १३ वर्ष पश्चात् संवत् चलाया ।
इसके अतिरिक्त वीर नि० सं० ४७० से पहले वीर नि० सं० ४५७ अथवा अन्य किसी समय में शकों को पराजित कर विक्रम द्वारा उज्जयिनी के राज्यसिंहासन पर अधिकार करने की मान्यता का जन्म सम्भवतः उपरोक्त दो प्राचीन गाथानों और चतुर्थी के दिन पर्युषण पर्वाराधन प्रारम्भ किये जाने विषयक निशीथचूरिंग के उल्लेख के आधार पर हुआ है । निशीथचूरिंग में यह उल्लेख विद्यमान है कि प्रार्य कालक शक राज्य की समाप्ति के पश्चात् उज्जयिनी गये । उस समय उनके भानजे बलमित्र और भानुमित्र उज्जयिनी राज्य के स्वामी थे । उज्जयिनी में अनुकूल प्रथवा प्रतिकूल परीषह उपस्थित किये जाने पर कालक ने उज्जयिनी से प्रतिष्ठानपुर की भोर विहार कर दिया। प्रतिष्ठानपुर में पहुँचने पर वहां के राजा सातवाहन की प्रार्थना पर आर्य कालक ने परम्परागत पंचमी के स्थान पर चतुर्थी के दिन पर्यावरण पर्वाराधन किया ।
ऐसा प्रतीत होता है कि निशीथ चूरिंग के इस प्रकार के उल्लेख की पुष्टि हेतु ही उपर्युल्लिखित दोनों गाथाओं में से किसी एक की रचना की गई हो ।
. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के संदर्भ में समीचीनतया पर्यालोचन से गर्दभिल्ल तथा शकों के पश्चात् बलमित्र - भानुमित्र द्वारा उज्जयिनी पर अधिकार किया जाना किसी भी दशा में प्रमाणित नहीं होता । श्रार्य कालक के भागिनेय बलमित्र भानुमित्र उस समय में भृगुकच्छ (भड़ोंच) के राजा थे और उनका राज्य, शकों का उज्जयिनी पर से विक्रम द्वारा प्राधिपत्य समाप्त किये जाने के पश्चात् भी भडोंच तक ही सीमित रहा ।
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