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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मा. सु. के बाद चूंकि इस सम्बन्ध में कोई स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध साहित्य में दृष्टिगोचर नहीं होता अतः निश्चित रूप से तो इस सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। फिर भी तत्कालीन कतिपय घटनाओं और पश्चाद्वर्ती प्राचार्यों एवं लेखकों द्वारा उल्लिखित कुछ विवरणों के आधार पर अनुमान किया जा सकता है कि दूरदर्शी प्राचार्यों ने कालप्रभाव से होने वाले गणभेद, सम्प्रदायभेद एवं मान्यताभेद मादि विभिन्न भेदों को दृष्टिं में रखते हुए भेद में प्रभेद को. चिरस्थायी बनाने का यह मार्ग ढूंढ निकाला हो।
प्रार्य महागिरि और सुहस्ती के जीवनपरिचय से यह तथ्य स्पष्टतः प्रकट होता है कि उनके समय में मतभेद का बीजारोपण तो नहीं हो पाया था पर श्रमणवर्ग में कतिपय श्रमण कठोर श्रमणाचार के पक्षपाती और अधिकांश श्रमरण समय, सामर्थ्य प्रादि को दृष्टिगत रखते हुए अपवादमार्ग के समर्थक हो चले थे। "वर्तमान का यह थोड़ा सा भी प्राचारभेद आगे चल कर पारस्परिक संपर्क के अभाव में कहीं अधिक उग्र रूप धारण न कर ले" - इस दृष्टि से भाचार्य सुहस्ती ने पार्य महागिरि के पश्चात् शास्त्रीय परम्परा में एकवाक्यता एवं एकरूपता बनाये रखने की शासनहित की भावना से दोनों गणों द्वारा मान्य उनके शिष्य बलिस्सह को वाचनाचार्य पद पर नियुक्त कर एक नवीन परम्परा का सूत्रपात किया।
__ गणाचार्य के साथ वाचनाचार्य की स्वतन्त्र नियुक्ति से दोनों विचारधारामों के श्रमणों का सदा निकटतम सम्पर्क बने रहने से श्रमणसंघ में यथावत् ऐक्य बना रहा। . हां तक युगप्रधानाचार्य परम्परा का प्रश्न है, ऐसा प्रतीत होता है कि प्रार्य सुहस्ती के समय में मौर्य सम्राट सम्प्रति द्वारा उत्कट निष्ठा मोर लगनपूर्वक किये गये शासनसेवा के कार्यों से जैनधर्म के उल्लेखनीय प्रचार-प्रसार के साथसाथ श्रमरणसंध भी खूब फलाफूला। श्रमणों के समूदाय देश और विदेशों के दूरवर्ती प्रदेशों में पहुंच कर धर्म का प्रचार करने लगे। फलस्वरूप प्रार्य सुहस्ती की सर्वतोमुखी प्रतिभा बहुगुणित हो चमक उठी और महान् प्रभावक होने के कारण वे समस्त संघ में यूगप्रधानाचार्य के रूप में विख्यात हो गये। तभी से युगप्रधानाचार्य की तीसरी परम्परा भी अधिक स्पष्ट रूप में उभर माई । वाचनाचार्य
और युगप्रधानाचार्य ये दोनों पद किसी गणविशेष में सीमित न रह कर योग्यता विशेष से सम्बन्धित रहे।
यह भी संभव प्रतीत होता है कि प्रार्य सुहस्ती के समय में उनके विशाल साधुसंघ के श्रमण तथा अन्य गणों के श्रमण कालान्तर में स्वतन्त्र प्राचार्य के अधीन स्वतन्त्र गण के रूप में विचरण करने लगे हों और उन्हें उसी रूप में रहने की अनुमति के साथ-साथ एकता के सूत्र में बांधे रखने की दृष्टि से स्पविरों ने सोच-विचार के पश्चात् युगप्रधानाचार्य की परम्परा को सर्वमान्य एवं सर्वोपरि स्थान प्रदान किया हो।
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