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भिवावराय खारवेल का वंश] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य बलिस्सह तत्कालीन ऐतिहासिक घटनाओं के साक्ष्य से यह सिद्ध होता है कि वस्तुतः खारवेल का जन्म वीर नि० सं० २६२ में, युवराजपद ३०७ में, राज्याभिषेक ३१६ में और निधन वीर नि० सं० ३२६ में हना था।
भिक्खराय खारवेल का वंश कलिंगपति भिक्खुराय खारवेल के सम्बन्ध में यद्यपि हाथीगंफा के शिलालेख तथा हिमवन्त स्थविरावली में पर्याप्त उल्लेख विद्यमान हैं तथापि इस सम्बन्ध में विद्वान् अद्यावधि किसी निश्चित एवं सर्वमान्य निर्णय पर नहीं पहुंच सके हैं। अंतः खारवेल के वंश के सम्बन्ध में यहां थोड़ा प्रकाश डालने का प्रयास किया जा रहा है।
हिमवन्त स्थविरावली में भिक्खुराय को वैशाली गणराज्य के प्रमुख महाराजा चेटक के पुत्र शोभनराय का वंशज बताया गया है। हाथीगुफा के शिलालेख में भिक्खुराय के वंश के सम्बन्ध में दो बार उल्लेख किया गया है। अहंतों एवं सिद्धों को नमस्कार के पश्चात् इस शिलालेख का पहला शन्द ऐरेन वस्तुतः भिक्खुराय के वंश के विषय में पर्याप्त प्रकाश डाल देता है। इससे दो शब्द पश्चात् ही "चेतराजवसवधनेन" यह एक और शब्द देकर लेख की पहली पंक्ति में ही खारवेल के वंश का पूर्ण परिचय दे दिया गया है।
रलयोः डलयोश्चव, शषयोः वबयोस्तथा ।
वदन्त्येषां तु सावर्ण्यमलंकारविदो जनाः ।। इस सर्वजनसुविदित सूक्ति के अनुसार ऐलेन शब्द को उपरोक्त प्रथम पंक्ति में 'ऐरेन' लिखा गया है जिसका सीधा सा अर्थ है- चन्द्रवंशी ने । पुराण-इतिहास के विज्ञ इस तथ्य से भलीभांति परिचित हैं कि चन्द्रपुत्र बुध और इला.के संयोग से उत्पन्न हुए पुरुरवा से चन्द्रवंश की उत्पत्ति हुई। पुराणों में चन्द्रवंश को सोमवंश और ऐलवंश के नाम से भी अभिहित किया गया है। इला का पुत्र होने के कारण पुरुरवा की ऐल नाम से भी प्रसिद्धि हुई। चन्द्रवंश की प्रागे चल कर अनेक शाखा-प्रशाखएं प्रसृत हुई।
पुरुरवा के प्रतापी पुत्र का नाम ययाति था। ययाति के छोटे पुत्र यदु से यादव वंश चला, आगे चल कर यादव वंश की भी अनेक शाखाएं हुई। यदु के बड़े पुत्र सहस्रजित् के एक ही पुत्र था जिसका नाम था शतजित् । शतजित् के तीसरे और सबसे छोटे पुत्र हैहय से हैहयवंशी यादव क्षत्रियों की शाखा प्रचलित हुई। महाराज चेटक इसी हैहयवंशी शाखा के चन्द्रवंशी, सोमवंशी अथवा ऐलवंशी क्षत्रिय थे। उनके पुत्र शोभनराय ने कलिंग में अपने श्वसुर के पास शरण ली और उसकी मृत्यु के पश्चात् वे कलिंगपति बने । उन शोभनराय की वंशपरम्परा में ही भिक्खुराय हुमा, इसी कारण इसे शिलालेख में ऐल लिखा गया है। 'श्रीमद्भागवत, कंघ ६, प्र. १
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