________________
दशपूर्वघर - काल : श्रार्य श्यामाचार्य
૪૨૨
पहुंच चुकी थी । पुष्यमित्र द्वारा किया गया बौद्धभिक्षुत्रों का कत्लेग्राम इसका प्रमाण है ।
भ्रम का निराकररग
अहिंसा के महान् सिद्धान्तों, प्राचीन भारतीय एवं विश्व इतिहास की ऐतिहासिक घटनाओं का पूरी तरह मूल्यांकन न कर पाने तथा यत्किचित् साम्प्रदायिक व्यामोह के कारण कतिपय आधुनिक इतिहासकारों ने इस प्रकार की भ्रान्ति उत्पन्न करने का प्रयास किया है कि बौद्ध धर्म और जैन धर्म द्वारा किये गये हिंसा के व्यापक प्रचार-प्रसार के कारण विदेशियों ने भारत पर आक्रमण करने का दुस्साहस किया। उनका कहना है कि विदेशियों के आक्रमण के समय मौर्यवंश का अन्तिम राजा वृहद्रथ मुण्डित हो बौद्ध भिक्षुत्रों के प्रास धर्मश्रवरण करता रहता । इसके कारण विदेशी आक्रान्ताओं को अपने भारतविजय अभियान में सफलताएं मिलीं। और इससे जनमानस में अहिंसा के प्रति क्षोभ उत्पन्न हुआ । हिंसा से ऊब कर सेना और जनता ने वृहद्रथ के सेनापति पुष्यमित्र का साथ दिया । परिणामतः पुष्यमित्र शुंग ने मगध साम्राज्य की प्रजा और सेना के समक्ष अंतिम मौर्यवंशी राजा वृहद्रथ की हत्या कर दी ।
ऐतिहासिक घटनाक्रम के पर्यवेक्षरण से इस प्रकार का प्रचार वस्तुतः भ्रान्त और निराधार सिद्ध होता है । इतिहास और पुराण साक्षी हैं कि पुष्यमित्र ने अपनी वैयक्तिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिये अपने स्वामी के साथ विश्वासघात कर धोखे से उसकी हत्या की । यदन श्राक्रान्ता डिमिट्रियस ने वृहद्रथ के शासनकाल में नहीं, अपितु पुष्यमित्र के शासनकाल में भारत पर आक्रमण किया । पुष्यमित्र द्वारा पहला प्रश्वमेव सम्पन्न किये जाने के पश्चात् ही डिमिट्रियस द्वारा पाटलिपुत्र पर आक्रमण किया गया। पाटलिपुत्र की प्राचीरों को धूलिसात् कर डिमिट्रियस ने पाटलिपुत्र में भीषण नरसंहार किया ।' उस युद्ध में पुष्यमित्र डिमिट्रियस से पराजित हुआ । गृहकलह के कारण डिमिट्रियस को अपनी विशाल वाहिनी के साथ स्वदेश लौटना पड़ा। बैक्ट्रिया के गृहयुद्ध में डिमिट्रियस अपने अनेक योद्धाओं के साथ मारा गया । अन्यथा पुष्यमित्र के शासनकाल में ही देश विदेशी प्राक्रान्ता की दासता में आ चुका होता। एक अश्वमेध यज्ञ के पश्चात् डिमिट्रियस से पराजय के कारण ही पुष्यमित्र को दूसरा अश्वमेध यज्ञ करना पड़ा। उस द्वितीय प्रश्वमेध के घोड़े की रक्षा के लिये पुष्यमित्र के पौत्र वसुमित्र को काली सिन्धु के तट पर संभवतः यवन श्राक्रान्ता मीनाण्डर से युद्ध करना पड़ा, जिसका कि उल्लेखं मालविकाग्निमित्र में उपलब्ध होता है ।
ऐसी स्थिति में इस प्रकार का आरोप लगाना नितान्त निराधार और तथ्यहीन है कि बौद्धों और जैनों द्वारा किये गये अहिंसा प्रचार के प्रभाव में
१
यवनाः दुष्टविक्रान्ता:, प्राप्स्यति कुसुमध्वजं ।
ततः पुष्पपुरे प्राप्ते, कर्दमे प्रथिते हि ते ।। [ गार्गी संहिता, युगपुराण ]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org