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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [भ्रम का निराकरण
राजाओं के आ जाने के कारण विदेशी आक्रान्ताओं को भारत पर आक्रमण करने का अवसर मिला।
___ भारत पर विदेशी आक्रमणों के इतिहास का निष्पक्ष दृष्टि से पर्यालोचन किया जाय तो यह स्पष्टतः प्रकट हो जायगा कि गृहकलह, धार्मिक असहिष्णुता, विशृखल शासन और विकृत आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था आदि कारणों में से ही कोई न कोई कारण विदेशी आक्रमण के मूल में रहा है ।
भारत पर विदेशियों के प्राक्रमण का सबसे प्राचीन उल्लेख श्रीमद्भागवत, महाभारत आदि पौराणिक ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। उसमें बताया गया है कि हैहयों एवं तालजंघों ने यवनों, शकों और बर्बर जाति के विदेशियों की सहायता से अयोध्या के सूर्यवंशी राजा बाहक पर आक्रमण कर उसे पराजित किया। बाहक अपनी रानियों के साथ अयोध्या से निकल कर जंगलों में चला गया और वहां रहने लगा। अयोध्या के राज्यसिंहासन से सूर्यवंशी राजा को पदच्युत करने की पुराणकारों द्वारा यह सर्वप्रथम घटना बताई गई है।
तदनन्तर बाहुक के पुत्र सगर ने युवावस्था में प्रवेश करते ही अयोध्या के अपने पैतृक राज्य पर पुनः अधिकार किया। अयोध्या के राज्यसिंहासन पर प्रारूढ़ होते ही सगर ने हैहयों तथा तालजंघों के साथ-साथ विदेशी यवनों, शकों और बर्बरों को इतनी बुरी तरह से कुचला' कि फिर शताब्दियों ही नहीं अनेक सहस्राब्दियों तक विदेशी आततायियों ने भारत की ओर मह तक नहीं किया।
तत्पश्चात् भारत पर दूसरा बड़ा विदेशी आक्रमण महाभारत के महान् संहारक युद्ध से कुछ वर्ष पूर्व काल-यवन द्वारा किया गया, जिसमें योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा काल-यवन कराल काल के गाल का कवल बना दिया गया। पुराणवेत्ता इस तथ्य से भलीभांति परिचित हैं कि उक्त दोनों विदेशी आक्रमण भारत के ग्रहकलह के ही परिणामस्वरूप हुए थे।
भारत पर तीसरा बड़ा विदेशी आक्रमण ईसा से ३२७ वर्ष पूर्व यूनान के महत्त्वाकांक्षी योद्धा सिकन्दर ने किया।
भारत पर सिकन्दर के आक्रमण का कारण ज्ञात करने से पहले ईरान और यूनान के तात्कालिक पारस्परिक सम्बन्धों पर सरमरी तोर में दृष्टिपात करना होगा। भारतीयों की तरह ईरानी और यूनानी भी प्रार्य हैं । यूनानी लोग गणतन्त्र व्यवस्था में विश्वास करते थे। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में यूनान में अधिकांशतः नगरों के रूप में गणा राज्य थे। ईरान के विशाल साम्राज्य की
'सगरश्चक्रवासीत्, सागरो यत्सुतः कृतः । यस्तालजंघान् यवनाञ्छकान् हैहयबबंरान् ।।५।। नावधीद् गुरुवाक्येन, चक्रे विकृतवेषिणः । मुडाञ्छ्मश्रुधरान् कांश्चिन्मुक्त के शार्घ मण्डितान् ।।६।।
श्रीमद्भागवत, ६ स्कंध, ८ अ०]
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