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भ्रम का निराकरण] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य श्यामाचार्य
राजा अपनी प्रजा के सुख में ही अपना सुख मानता था ।' अशोक द्वारा शिलाओं पर खुदवाये गये निम्नलिखित अभिलेख का एक-एक अक्षर इस तथ्य की साक्षी देता है :
मेरा यह कर्तव्य है कि शिक्षा के प्रसार द्वारा मै प्रजाजनों का उपकार करूं । निरन्तर चलने वाले उद्योग एवं न्याय का समुचित प्रबन्ध ये सर्वसाधारण के हित की आधारशिलाएं हैं- इनसे बढ़कर फलप्रद अन्य और कुछ भी नहीं है। मेरे सभी प्रयासों-प्रयत्नों का मूल उद्देश्य यही है कि मैं सभी लोगों के ऋण से उऋण हो जाऊं। जहां तक मुझसे सम्भव है, मैं सर्वसाधारण को सुखी बनाने के लिए प्रयत्न करता रहता है । मेरी यह प्रान्तरिक अभिलाषा है कि सब लोग भविष्य में भी स्वर्गीय सुख प्राप्त करें, मेरे पुत्र, पौत्रादि भावी पीढ़ियां भी सर्व साधारण को सुख पहुंचाने में सदा निरत रहें। मैंने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए यह लिपि उत्कीर्ण करवाई है।"
कितना ऊंचा आदर्श रहा है अहिंसा के उपासक राजाओं का ? इस प्रकार का प्रादर्श खोजने पर भी संसार के इतिहास में अन्यत्र नहीं मिलेगा।
अहिंसा और जैन धर्म के महान सिद्धान्तों से परिचित न होने के कारण अनेक विद्वानों को यह विदित नहीं है कि वस्तुतः अपराधियों, प्रातताइयों, अंसामाजिक तत्त्वों और आक्रान्तानों को समुचित दण्ड देने में अहिंसा के सिद्धान्त कहीं किसी प्रकार की कोई बाधा उपस्थित नहीं करते। इस प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल में विश्वधर्म-जैनधर्म के प्रादि-संस्थापक प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने जिस समय सर्वप्रथम राज्य-व्यवस्था, सामाजिक-व्यवस्थाएवं अर्थ-व्यवस्था की नींव डाली, उसी समय उन्होंने देश और समाज में अशान्ति तथा अव्यवस्था फैलाने का प्रयास करने वाले असामाजिक तत्वों, आतताइयों एवं अपराधियों के दमन के लिये जनहितायसमष्टिहिताय कठोर दण्डनीति की व्यवस्था की। उस दण्ड-व्यवस्था में अपराधियों के अंगछेदन तक की व्यवस्था थी। भगवान् ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित उस कठोर दण्ड-व्यवस्था का जनहित में औचित्य बताते हुए प्राचीन आचार्य भद्रेश्वर सूरि ने अपने "कहावली" नामक ग्रन्थ में लिखा है कि जिस प्रकार भयंकर विषधर अथवा आग की भट्टी की ओर बार-बार मना करने पर भी बढ़ते हुए प्रबोध बालक को उसका पिता बालक के हित की दृष्टि से रस्सी से एक स्थान पर बांध देता है, घसीटता अथवा ताड़न-तर्जन करता है, उसी प्रकार समष्टि के हित की दृष्टि से अपराधियों की अपराध करने की प्रवृत्ति के उन्मूलन हेतु भगवान् ऋषभदेव ने कठोर दण्डव्यवस्था की।' . ........"बीस पुबलक्खोवरि राया जामो ति । न य एवं उस्सुत्तं, चडियपाडणे वि बबहारथियो भगवमो तुलहारिव्य दोसो। महवा एगो गोवालगो कीलंतो सप्पहरतसं गयो । तत्थ य तं दसिउकामो सप्पो पुणो पुणो हेल्लाउ देतो बालगपिउणा कहवि दिट्ठो। तपो तुरियमागंतूण तेण मणिपो बालगो-पुत्तगा एहि एहि मा सप्पेणेत्य रसिजसि । सो पगालं तूपावणेणं सप्पाभिमुहं चेव वच्चंत दळूण तस्सेव हियकरणत्यं पायाइस
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