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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [भ्रम का निराकरण सेना के इन पांचों विभागों की देखरेख, समुन्नति एवं अभिवृद्धि के लिये सामरिक परिषद द्वारा पृथक्-पृथक् एक-एक समिति नियुक्त की जाती थी। सामरिक परिषद द्वारा नियुक्त एक पांच सदस्यीय समिति सेना के लिये आवश्यक साजसामान, नवीनतम शस्त्रास्त्रों के निर्माण प्रादि की व्यवस्था करती थी।
___ कोई प्राभ्यन्तरिक अथवा बाहरी शत्रु देश की प्रभुसत्ता अथवा सुरक्षा पर किसी भी प्रकार का आघात पहुँचाने का प्रयास करता तो उसे तत्काल संन्य-शक्ति के माध्यम से सदा के लिये कुचल दिया जाता।
___इसी प्रकार असामाजिक तत्वों के लिये, अपराधियों के लिये कड़े से कड़े दण्ड की व्यवस्था थी। कठोर दण्ड व्यवस्था के कारण कोई अपराध करने का दुस्साहस ही नहीं करता था। यह भी एक कारण था कि उस समय अपराधों की संख्या नगण्य थी। उच्च शिक्षा के साथ-साथ सदाचार की शिक्षा का भी उस समय में समुचित प्रबन्ध किया जाता था। अपराधी मनोवृत्ति के उन्मूलन में सदाचार की शिक्षा का भी बहुत बड़ा महत्वपूर्ण योगदान माना गया है। ___मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के शासनकाल में यूनानी राजदूत मैगस्थनीज बहुत वर्षों तक भारत में राजदूत रहा। उसने भारत विषयक अपने संस्मरणों में लिखा है- "भारतीय सम्राट चन्द्रगुप्त का शासन बहुत ही सुसंगठित और सुदृढ़ है। सम्राट चन्द्रगुप्त की सेना में ६ लाख पैदल सेना, ३० हजार अश्वारोही, ६ हजार हाथी और हजारों रथ सदा सन्नद्ध रहते हैं।"
___ चीनी यात्री हुएनत्सांग और फाहियान ने अपने यात्रा विवरणों में तत्कालीन भारत की समृद्धि, राज्य व्यवस्था, सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्थाविषयक आंखों देखे हाल का चित्रण करते हुए स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि प्रजा पूर्णतः सम्पन्न और सुखी है, लोग अपने घरों तथा हीरे, जवाहरात, स्वर्ण एवं चांदी आदि की दुकानों पर भी ताले नहीं लगाते । राज्य की ओर से लम्बी-चौड़ी सड़कों के आसपास धर्मशालाओं, अतिथिगृहों, प्रपाओं तथा यात्रियों के लिए सभी प्रकार की सुख-सुविधाओं एवं सुरक्षा की समुचित व्यवस्था है। भारत के लोग सुखी सम्पन्न और खुशहाल हैं। वे अतिथिसत्कार को अपना पुनीत कर्त्तव्य मानते हैं। ___ तत्कालीन भारत के सम्बन्ध में विदेशियों द्वारा लिखे गये विवरणों, राजाओं द्वारा उत्कीर्ण करवाये गए शिलालेखों तथा प्राचीन ग्रंथों में उपलब्ध उल्लेखों से यह प्रकट होता है कि राजा और प्रजा का पारस्परिक सम्बन्ध बड़ा ही सौहार्दपूर्ण था। राजा प्रजा की सुख-सुविधा एवं सुरक्षा हेतु समुचित प्रबन्ध करना अपना परम पवित्र कर्त्तव्य मानता था। प्रजा भी शासन को सदा अपने लिए हितकर मानकर राजाज्ञामों का अक्षरशः पालन करती थी। राजा और प्रजा के बीच प्रेम पूर्ण व्यवहार के कारण शासन स्वचालित यन्त्र की तरह सुचारु रूप से चलता था, न कि सैन्य बल के सहारे । यद्यपि शक्तिशाली सुविशाल सेनाएं सदा सन्नद्ध रखी जाती थीं पर उनका विदेशी आक्रान्ताओं को कुचल डालने एवं आभ्यांतरिक शत्रुओं के दमन के लिए ही उपयोग किया जाता था।
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