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कलिं० महामेघ० खार० ) दश पूर्वघर - काल : श्रायं बलिस्सह
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मथुरा का घेरा उठाकर अपने दल-बल सहित वापिस ( अपने देश की ओर ) लोट गया । १
शिलालेख की ये दोनों पंक्तियां ऐतिहासिक दृष्टि से बड़ी ही महत्वपूर्ण हैं। यह पहले सिद्ध किया जा चुका है कि पुष्यमित्र वीर नि० सं० ३२३ में मौर्यवंश के अन्तिम राजा वृहद्रथ को मारकर मगध के राजसिंहासन पर बैठा । राज्यारोहण करते ही उसने बौद्धों और जैनों पर भयंकर अत्याचार करने प्रारम्भ किये। बौद्धों की महायान शाखा के ग्रंथ 'दिव्यावदान' में पुष्यमित्र द्वारा किये गए अत्याचारों का बड़ा ही रोमांचक विवरण दिया गया है। उसमें लिखा है :
'पुष्यमित्र ने राज्यासीन होते ही अपने मंत्रियों से पूछा कि किन कार्यों को करने से उसका नाम चिरस्थायी रह सकता है ? जब मंत्रियों ने उसे अशोक की तरह धर्मकार्य करने की सलाह दी, तो वह उसे रुचिकर नहीं लगी। एक ब्राह्मण द्वारा सुझाये गये उपाय के अनुसार उसने संघारामों, स्तूपों आदि को नष्ट करने का संकल्प किया और उसने अपने राज्य में यह घोषणा करवा दी कि जो कोई व्यक्ति उसे श्रमरण का शिर लाकर देगा उसे वह प्रत्येक शिर के बदले में १०० स्वर्णमुद्राएं देगा । २
तदनुसार पुष्यमित्र के राज्य में श्रमणों की हत्याएं की जाने लगीं । पुष्यमित्र ने स्वयं एक बड़ी सेना लेकर पाटलिपुत्र से श्यालकोट तक के संघारामों और बौद्ध स्तूपों को विध्वस्त कर दिया ।
जैन ग्रन्थों में कल्कि द्वारा जैन श्रमरणों पर किये गए अत्याचारों का जो वर्णन उपलब्ध होता है, वह वस्तुतः पुष्यमित्र द्वारा किये गए अत्याचारों का ही विवरण प्रतीत होता है ।
दिव्यावदान में पुष्यमित्र सम्बन्धी उल्लेखों के अध्ययन से यह अनायास ही प्रकट हो जाता है कि पुष्यमित्र को अपना नाम चिरस्थाई बनाने की बड़ी तीव्र उत्कण्ठा थी । अतः उसने मगध के सिंहासन पर आरूढ़ होते ही, अपने विश्वस्त परामर्शदाताओं के परामर्शानुसार बौद्धधर्म और जैन धर्म को जड़ से उखाड़ फेंकने के दृढ़ संकल्प के साथ जैनों और बौद्धों पर घोर अत्याचार करने प्रारम्भ किये । जो अन्य धर्मावलम्बी पिछली कई शताब्दियों से राज्याश्रय से वंचित रहे, उन लोगों का निश्चित रूप से पुष्यमित्र को अपने धर्मान्धता के उस अभियान में पूर्ण समर्थन प्राप्त हुआ होगा । इस अनुमान को पतंजलि व्याकरण भाष्यकार के - 'पुष्यमित्रं याजयामः', इस वाक्य से पर्याप्त बल मिलता है । इतिहासकारों ने
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, खारवेल का शिलालेख, पंक्ति
२ यावत् पुष्यमित्रो यावत् संघारामं भिक्षूंश्च प्रघातयन् प्रस्थितः स यावत् शाकलमनुप्राप्तः । तेनाभिहितं - यो मे श्रमरणशिरो दास्यति तस्याहं दीनारशतं दास्यामि ।
[ दिव्यावदान, श्रवदान २६ ]
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