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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [पुष्यमित्र शुंग नाम वहसतिमित्त (बृहस्पति मित्र) दिया हुआ है । प्रसिद्ध पुरातत्वविद् श्री जायसवाल ने अपनी उपर्यल्लिखित पुस्तक में लिखा है- "मैंने पुष्यमित्र (जो शंग वंश के ब्राह्मण थे) और बृहस्पतिमित्र का एक होना बतलाया है। पुष्य नक्षत्र का बृहस्पति मालिक है। इस एकता को योरप के नामी ऐतिहासिकों ने मान लिया है।"
हिमवन्त स्थविरावली में भी स्पष्ट उल्लेख है कि खारवेल ने मगधपति पुष्यमित्र को युद्ध में पराजित कर अपना प्राज्ञानुवर्ती बनाया।' इससे यह सिद्ध होता है कि पुष्यमित्र और बृहस्पतिमित्र ये दोनों नाम एक ही राजा के नाम हैं।
पुष्यमित्र का ही अपर नाम बृहस्पतिमित्र था, इस तथ्य की पुष्टि पुराणों के उल्लेखों एतं प्राचीन सिक्कों से भी होती है। श्रीमद्भागवत में पुष्यमित्र के पुत्र का नाम अग्निमित्र बताया गया है, जो कि भारत का एक बड़ा ही शक्तिशाली राजा हुया है। इन दोनों पिता-पुत्र के जो सिक्के उपलब्ध हुए हैं, वे परस्पर एक दूसरे से पर्याप्त साम्यता रखते हैं। बृहस्पतिमित्र के सिक्के की तरह ठीक उसी आकार-प्रकार तथा कोटि का अग्निमित्र का भी सिक्का मिलता है । पुरातत्वविदों का अभिमत है कि अग्निमित्र के सिक्के बृहस्पतिमित्र के सिक्कों की अपेक्षा कुछ पश्चाद्वर्ती काल के हैं। पुराणों द्वारा पुष्यमित्र के पुत्र का नाम अग्निमित्र उल्लिखित किया जाना और बहसतिमित्त (बृहस्पतिमित्र) तथा अग्निमित्र के सिक्कों में पर्याप्त साम्य होना इस बात का प्रमाण है कि पुष्यमित्र का अपर नाम बृहस्पतिमित्र भी था। .
__ऐसा विश्वास किया जाता है कि पुष्यमित्र का शासनकाल मगधराज्य में जैनों तथा बौद्धों के अपकर्ष का और वैदिक कर्मकाण्ड के उत्कर्ष का काल रहा । सम्भवतः कलिंगपति खारवेल की मृत्यु के पश्चात् पुष्यमित्र ने जैनों और बौद्धों के प्रति अपना कड़ा रुख और कड़ा कर लिया होगा। दक्षिण में जैन धर्म के प्रबल प्रचार-प्रसार के पीछे पुष्यमित्र का जैनों के प्रति कड़ा रुख भी प्रमुख कारण अनुमानित किया जा सकता है। संभव है पुष्यमित्र द्वारा किये गये प्रत्याचारों ने उन्हें मगध छोड़ने के लिये वाध्य किया हो और फलतः उन्होंने दक्षिण को अपना कार्य-क्षेत्र चूना हो।
उपरोक्त घटनाक्रम के सन्दर्भ में विचार करने पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि आर्य बलिस्सह के वाचनाचार्य-काल में जहां जैन धर्म को सम्प्रति जैसे धर्मनिष्ठ एवं परम भक्त प्रभावक राजा के राज्यकाल में प्रचार-प्रसार की पूर्ण सुविधा प्राप्त हुई, वहां पुष्यमित्र जैसे जैनों से विद्वेष रखने वाले राजा के राज्य में घोर संकटापन्न दौर में से गुजरना पड़ा। - एसो रणं भिक्खुरायो अईव परक्कमजुप्रो गयाइसेरणाकंतमहियलमंडलो मगहाहिवं पुप्फमित्तं णिवं महिणि क्खित्ता णियाणम्मि ठाइत्ता............ [हिमवन्त स्थविरावली]
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