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दशपूर्वर- काल : भार्य बलिस्सह
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बात को सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है कि हाथीगुंफा का शिलालेखं खारवेल के जीवनकाल में नहीं अपितु काफी समय पश्चात् लिखा गया है ।
पुष्यमित्र शुंग
भिक्खुराय खारवेल द्वारा आयोजित संघ-सम्मेलन में प्रार्य बलिस्सह की उपस्थिति विषयक हिमवन्त स्थविरावली के उल्लेख को दृष्टिगत रखते हुए विचार किया जाय तो आर्य बलिस्सह के आचार्यकालं में पुष्यमित्र शुंग का भी राज्यकाल रहा ।
खारवेल के परिचय में यह तो बताया जा चुका है कि वीर नि० सं० ३२३ में अन्तिम मौर्य - राजा वृहद्रथ की हत्या कर पुष्यमित्र पाटलिपुत्र के राजसिंहासन पर बैठा । पुष्यमित्र ब्राह्मण था, क्षत्रिय था अथवा किसी इतर जाति का इस सम्बन्ध में विभिन्न ग्रभिमत उपलब्ध होते हैं ।
बौद्ध ग्रंथ दिव्यावदान में पुष्यमित्र को केवल क्षत्रिय ही नहीं अपितु प्रशीक का, वंशज बताया गया है । श्रीमद्भागवत, २ वायुपुराण, मत्स्यपुराण और हिमवन्त स्थविरावली' में पुष्यमित्र को वृहद्रथ का सेनापति बताया गया है। पर इनमें से किसी ग्रंथ में पुष्यमित्र की जाति के सम्बन्ध में कोई उल्लेख नहीं किया गया है । इतिहास और पुरातत्व के प्रसिद्ध विद्वान् श्री के० पी० जायसवाल ने पुष्यमित्र को ब्राह्मण जाति का बताते हुए अपनी "कलिंग चक्रवर्ती महाराज खारवेल के शिलालेख का विवरण" - नामक पुस्तिका में लिखा है" बहसतिमित्त की रिश्तेदारी अहिच्छत्र के राजाओं से थी, जो ब्राह्मण थे, यह area - भोसा के शिलालेख से साबित है ।"
पतंजलि के व्याकरण भाष्य, श्रीमद्भागवत आदि पुराणों, बौद्ध ग्रन्थ दिव्यावदान और हिमवन्त स्थविरावली आदि में अन्तिम मौर्य राजा वृहद्रथ को मार कर मगध के सिंहासन पर आसीन होने वाले इस शुंगराज का नाम पुष्यमित्र लिखा है पर खारवेल के हाथीगुंफा वाले शिलालेख में मगधपति का
' पुण्यधर्मणः पुष्यमित्रः सोऽमात्यानामंत्रयते कः उपायः स्याद् यदस्माकं नाम चिरं तिष्ठते । तैरभिहितं देवस्य च वंशादशोको नाम्ना राजा बभूवेति, तेन चतुरशीतिधर्मराजिका सहस्र प्रतिष्ठापितं 'देवोऽपि चतुरशीतिधर्मराजिकासहस्रं प्रतिष्ठापयतु ।
[दिव्यावदान, अवदान २६]
२ हत्वा वृहद्रथं मौर्य, तस्य सेनापतिः कलौ । पुष्यमित्रस्तु शुंगाह्वः, स्वयं राज्यं करिष्यति ।।
3 पुष्प मित्रस्तु सेनानीरुद्धृत्य स वृहद्रथम् ।
पुष्यमित्रस्तु सेनानीरुद्धृत्य स वृहद्रथान् । कारयिष्यति वै राज्यं, षट्त्रिंशति समा नृपः ।
४
[ श्रीमद्भागवत, स्कंध १२, प्र०१] [ वायु पु०, अनुषंगपादसमाप्ति ]
[ मत्स्य पु०, ० २७१]
५ तं वि सुगय धम्मारणुगं वुड्ढरहं रिगवं मारिता तस्स सेराहिवइ पुप्फमित्तो पाडलिपुत्त
रज्जे ठिश्रो ।
[ हिमवन्त स्थविरावली अप्रकाशित ]
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