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मा०सु० के बाद संघ-व्य.] दशपूर्वधर-काल : महागिरि-सुहस्ती वाले विशाल साधुसमुदाय एक आचार्य के शासन में पूर्णतः व्यवस्थित रूप से चलते रहे। विभिन्न प्रान्तों में विचरने वाले विशाल साधुसमुदाय की व्यवस्था के लिये अनेक प्राचार्यों की सत्ता में भी संघ का प्रमुख नेतृत्व एक ही प्राचार्य के हाथ में रहा।
प्रार्य यशोभद्र के समय से कूल, गरण मौर शाखाओं का उद्भव होने लगा पर भद्रबाहु और स्थूलभद्र जैसे प्रतिभाशाली प्राचार्यों के प्रभाव से श्रमणसंघ में कोई मतभेद उभर न सका। पार्य महागिरि और प्रार्य सुहस्ती ने भी मतभेद की दरारों को उत्पन्न होते ही पाटते हुए अपने अस्तित्वकाल में जिनशासन का ऐक्य बनाये रखा।
भावी संतति में यत्किचित् परम्परा-भेद भी कहीं उग्र रूप धारण न कर ल तथा श्रुतधर्म एवं चारित्रधर्म की विशुद्ध परम्परा कहीं विनष्ट अथवा अपने स्वरूप से स्खलित न हो जाय, इस दृष्टि से उन्होंने प्राचार्य पद के प्रावश्यक कर्तव्यों एवं अधिकारों को (१) गणाचार्य, (२) वाचनाचार्य और (३) युगप्रधानाचार्य - इन तीन भागों में बांट दिया। इस व्यवस्था के फलस्वरूप निम्नलिखित तीन परम्पराएं प्रचलित हुई :
(१) गणधरवंश - इसमें गण के अधिनायक उन प्राचार्यों की प्रतिष्ठापना की गई, जो गुरु-शिष्य क्रम से उस गरण की परम्परा का संचालन करते रहे। इनकी परम्परा दीर्घकाल तक चलती रही। वर्तमान के गणपति उसी के अवशेष कहे जा सकते हैं।
(२) वाचकवंश - वाचकवंश के प्राचार्य वे कहलाते थे, जो आगमज्ञान की विशुद्ध परम्परा के पूर्ण मर्मज्ञ और वाचना-प्रदान में कुशल होते थे। इनकी सीमा अपने गण तक ही सीमित न हो कर पूरे संघ में मान्य होती थी।
(३) युगप्रधान परम्परा - इस परम्परा के अन्तर्गत युगप्रधानाचार्य उसे ही बनाया जाता था जो विशिष्ट प्रतिभा एवं योग्यता के कारण जनधर्म ही नहीं, उससे बाहर भी प्रभावोत्पादक होता। वाचनाचार्य या युगप्रधानार्य के लिये किसी गरण अथवा परम्परा का नियमन नहीं होता था कि वह किसी निश्चित गण अथवा परम्परा का ही हो । एक युगप्रधान के पश्चात् उससे भिन्न गण अथवा परम्परा का सुयोग्य श्रमण भी उस पद का अधिकारी हो सकता था।
उपरोक्त परिवर्तन की स्थिति विचारणीय है कि भगवान महावीर के पश्चात् लगभग ढाई-पौने तीन सौ वर्ष तक जो संघ व्यवस्था संघसंचालन एवं वाचनाप्रदान - इन दोनों कार्यों के एक ही गणाचार्य द्वारा निष्पादित किये जाने के रूप में सुव्यवस्थित रीति से चलाई जाती रही, वहां प्रार्य सुहस्ती के समय में ऐसी कौनसी अावश्यकता उत्पन्न हो गई कि सुदीर्घकाल से चली आ रही उस सुव्यवस्था को बदल कर संघसंचालन के लिये गणाचार्य तथा प्रागमवाचना के लिये वाचनाचार्य की नियुक्ति कर एक के स्थान पर - दो प्राचार्यों की और तदनन्तर युगप्रधानाचार्य की परम्परा को प्रचलित करना पड़ा?
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