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संघ-व्यवस्था दशपूर्वधर-काल : मायं महागिरि-सुहस्ती
वाचनाचार्य और युगप्रधानाचार्य के पद किसी गणविशेष में सीमित न रख कर विशिष्ट योग्यता से सम्बन्धित रखे गये, इसलिये ये दोनों पद उभय परम्पराओं एवं कालान्तर में सभी गणों के लिये मान्य रहे।
युगप्रधानाचार्य का प्रमुख कर्त्तव्य समस्त गणों को एक सूत्र में संगठित रख कर मूल रीति-नीति पर चलाना, कठिन समय में शासन-संरक्षण के साथसाथ जैनधर्म की गौरवगरिमाभिवृद्धि में अपनी योग्यता और प्रतिभा का परिचय देना था। उनका निर्णय जनेतर समाज में भी प्रमाणभूत माना जाता था।
दुष्षमाकाल श्रमणसंघस्तोत्र के अनुसार भगवान महावीर के धर्मशासन में दुष्षमाकाल के अन्त तक सुधर्मा प्रादि २००४ प्राचार्यों को युगप्रधान माना गया है।
वाचनाचार्य और युगप्रधानाचार्य की नयी व्यवस्था का तात्कालिक लाभ यह हया कि गण, कूल प्रादि के प्रादुर्भाव के उपरान्त भी संघ एकता के सूत्र में बंधा रहने के कारण छिन्न-भिन्न होने से बचता रहा ।
ऊपर लिखित तीनों परम्पराओं के प्राचार्यों के काल की ऐतिहासिक घटनामों का देवद्धि क्षमाश्रमण तक का परिचय देने से पूर्व यहां पर तीनों परम्पराओं के प्राचार्यों की नामावली प्रस्तुत की जा रही है :- .
पट्टधरों के क्रम में आर्य स्थूलभद्र के दो प्रमुख एवं पट्टधर शिष्यों-प्रार्य महागिरि और आर्य सुहस्ती-में आर्य महागिरि बड़े थे। इस दृष्टि से मार्य महागिरि की शाखा सभी तरह से प्रमुख शाखा मानी जानी चाहिये। तदनुसार प्राचीन प्राचार्यों द्वारा आर्य महागिरि की शाखा को ही प्रमुख माना भी गया है।' अतः यहां सर्वप्रथम, वाचकवंश-परम्परा के नाम से प्रसिद्ध आर्य महागिरि की आचार्य परम्परा की नामावली प्रस्तुत की जा रही है :
वाचकवंश-परम्परा १. प्रार्य सुधर्मा
१०. प्रार्य सुहस्ती २. आर्य जम्बू
११. आर्य बलिस्सह ३. आर्य प्रभव
१२. प्रार्य स्वाति ४. आर्य शय्यंभव
१३. आर्य श्याम ५. प्रार्य यशोभद्र
१४. प्रार्य सांडिल्य ६. आर्य संभूत विजय
१५. आर्य समुद्र ७. आर्य भद्रबाहु
१६. आर्य मंगु ८. आर्य स्थूलभद्र
१७. प्रार्य धर्म . आर्य महागिरि
१८. आर्य भद्रगुप्त 'अत्र चायं वृद्धसंप्रदाय: - स्थूलभद्रस्य शिष्यद्वयम् - मार्यमहागिरिः प्रायं सुहस्ती च । तत्र पार्यमहागिरेर्या शाखा सा मुख्या।
[मेरुतुंगीया स्थविरावली
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