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४८.
जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मा. बलि. का. राजवंश उपर्युल्लिखित राजाओं में से बिन्दुसार, अशोक और सम्प्रति के राज्यकाल की प्रमुख घटनाओं का विवरण ऊपर यथास्थान दे दिया गया है। हां, सम्प्रति के राज्यकाल के सम्बन्ध में विभिन्न उल्लेख उपलब्ध होते हैं। जिनसुन्दरकृत दीपालिकाकल्प में उल्लेख है कि भगवान् महावीर के निर्वाणानन्तर ३०० वर्ष व्यतीत हो जाने पर सम्प्रति हुआ।' किन्तु हिमवन्त स्थविरावली में उल्लेख किया गया है कि वीर नि० सं० २४४ में सम्प्रति को पाटलिपुत्र के सिंहासन पर बिठला कर अशोक निधन को प्राप्त हुना। सम्प्रति केवल दो वर्ष ही पाटलिपुत्र में रहने के पश्चात् अपनी राजधानी उज्जयिनी ले गया और शेष ६ वर्ष तक वहीं राज्य करता रहा ।' जिन शासन की अनेक प्रकार से महती प्रभावनाएं कर सम्प्रति वीर नि० सं० २६३ में दिवंगत हुआ।
हिमवन्त स्थविरावली में सम्प्रति का शासनकाल ४६ वर्ष बताया गया है । वस्तुतः वीर नि० सं० १५५ में नन्दवंश के अंत और मौर्यवंश के प्रभ्युदय की मान्यता के आधार पर मौर्यशासन की संगति बैठाने के लिये ही इस प्रकार का उल्लेख किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि हिमवन्त स्थविरावलीकार ने सम्प्रति के निधन का समय तो ठीक दिया है, पर उसके राज्यासीन होने का समय उल्लिखित करते समय उपरोक्त मान्यता के अनुसार मौर्यशासनकाल की संगति बैठाने में सम्प्रति का शासनकाल ११ वर्ष के स्थान पर बढ़ा कर ४६ वर्ष कर दिया है। वस्तुतः चन्द्रगुप्त मौर्य ने वीर नि० सं० २१५ में नन्दवंश का अन्त कर मौर्यशासन का सूत्रपात्र किया था। इस सम्बन्ध में पहले विस्तार के साथ प्रकाश डाला जा चुका है। मौर्यशासन के समीचीनतया पर्यवेक्षण से सम्प्रति का शासनकाल वीर नि० सं० २८२-८३ से २६३ तक का ही ठीक बैठता है ।
सम्प्रति के निधन के मनन्तर जैनाचार्यों ने पुण्यरथ और उसके पश्चात् वृहद्रथ - केवल इन दो मौर्यवंशी राजामों का पाटलिपुत्र में शासन होने का उल्लेख किया है। घटनाक्रम के पर्यवेक्षण से यहां ऐसा प्रतीत होता है कि अशोक की मृत्यु के दो वर्ष पश्चात् गृहकलह के कारण सम्प्रति को अपनी राजधानी
'दिनतो मम मोक्षस्य, गते वर्षशतत्रये।
उज्जयिन्यां महापुर्या, भावी सम्प्रतिभूपतिः ॥१०७।। [दीपालिकाकल्प] २. तमढे सोच्चा मसोम णिवेणं कोहाक्कतेणं तां णियभज्ज मारिता दोसपरावरे वि प्रणेगे राजकुमारा मारिया। पच्या कुणालपुत्तं संपदणामपिज्ज.रज्जे ठाइत्ता से रणं मसोम शिवो वीरामो चत्तालीसाहिय दो सय वासेसु विइक्कतेसु परलोमं पत्तो।
[हिमवन्त स्थविरावली] संपर रिणवोवि पाडलिपुत्तमि णियाणेगसत्तुभयं मुणित्ता रायहारिण तच्चा पुग्विं णियपिउभुत्तिलखावंतीणयरिम्मि. ठिमो सुहंसुहेणं रज्जं कुणइ ।
[वही] ४ मह वीरामो दोसयतेणउइ वासेसु विक्कतेसु जिपम्माराहणपरो संपइ णिवो सग्नं पत्तो।
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