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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ चौथा निह्नव प्रश्वमित्र " सव्वे पडुप समय नेरइया वोच्छिज्जिस्संति एवं जाव वेमारिणयत्ति ।" इस पाठ का अर्थ यह है कि जो वर्तमान काल के नारकीय हैं, वे दूसरे समय में विनाश को प्राप्त होते हैं। ऐसी अवस्था में पहले समय के नारकीय की जो पर्याय थी, वह विनष्ट हो जाती है और दूसरे समय में विशिष्ट दूसरी पर्याय हो जाती है ।
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वस्तुतः यह पाठ पर्याय पलटने के सम्बन्ध में है पर ज्ञानावरणीय कर्म के उदय के कारण, प्रश्वमित्र ने इसके वास्तविक अर्थ को नहीं समझते हुए अपनी भ्रान्त धारणा बना ली कि संसार की समस्त वस्तुएं, पाप, पुण्य और यहां तक कि आत्मा भी क्षण-क्षरण के अन्तर से नष्ट होने वाला है । अश्वमित्र के गुरु ने उसे अनेक प्रकार से उपरोक्त पाठ का सही अर्थ समझाने का प्रयास किया पर उस पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा और वह अपनी क्षणिकवाद की मान्यता पर दुराग्रहपूर्वक डटा ही रहा । समझाने के सभी प्रकार के प्रयास निष्फल हो जाने पर गुरु द्वारा उसे संघ से बहिष्कृत कर दिया गया ।
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संघ से बहिष्कृत किये जाने के पश्चात् प्रश्वमित्र अपने नये सामुच्छेदिक मत का घूम-घूम कर प्रचार करने लगा। ऐसा अनुमान किया जाता है कि समुच्छेदवादी चौथे निह्नव अश्वमित्र के समय तक बौद्ध धर्म के क्षणिकवाद का काफी प्रचार हो चुका होगा । सम्भव है अश्वमित्र पर भी बौद्धों के क्षणिकवाद का प्रभाव पड़ा हो। वह अपने अनेक साथियों के साथ विभिन्न क्षेत्रोंमें घूम-घूम कर अपने इस नये मत का प्रचार करने लगा और लोगों को उपदेश देने लगा कि जो जीव पहले समय में पाप करता है, वह दूसरे समय में नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार प्रथम समय में किया हुआ पुण्य दूसरे समय में नष्ट हो जाता है ।
प्रश्वमित्र अपने मत का प्रचार करता हुआ एक दिन अपने साथियों सहित राजगृह नगर पहुंचा। वहां उस समय नगर के चौकी-चुंगी विभाग का उच्चाधिकारी सच्चा श्रमरणोपासक था । उसने श्रश्वमित्र को सही मार्ग पर लाने के उद्देश्य से अपने कर्मचारियों द्वारा पकड़वा कर पिटवाना प्रारम्भ किया। पीड़ा से कराहते हुए श्रश्वमित्र ने उस अधिकारी से पूछा - "मैं साधु हूं और तुम श्रमणोपासक हो । मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि तुम मुझे क्यों पीट रहे हो ?" उस चुंगी अधिकारी ने उत्तर में कहा- "तुम्हारे समुच्छेदवाद की मान्यता के अनुसार तुम्हारे शरीर में साधु के रूप में प्रात्मदेव विराजमान था वह तो कभी का विनष्ट हो गया। उसी प्रकार मेरे अन्तर में श्रमरणोपासक के रूप में जो आत्मा थोड़ी देर पहले विद्यमान था, वह भी समाप्त हो चुका। इस दृष्टि से अब न तुम साधु हो और न मैं श्रमणोपासक ।"
इस प्रत्यक्ष अनुभव और प्रमाण से प्रश्वमित्र की बुद्धि तत्काल ठिकाने पर प्रा गई । उसे अपनी त्रुटि समझ में भा गई कि वस्तुतः वह भ्रमवश बिल्कुल मिथ्या धारणा बना बैठा था। चुंगी अधिकारी की बुद्धिमत्ता मे भटके हुए
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