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उत्कट साधना का प्रतीक] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य महागिरि-मुहम्ती मच गई और उसे ऐसा प्रतीत होने लगा कि पाठ में वाणत मुखों का उसने कहीं न कहीं अनुभव किया है। ईहापोह करते हए उमने स्मृति पर जोर दिया और उसे तत्काल जातिस्मरण ज्ञान हो गया। अवन्तिसुकुमाल ने प्राचार्यश्री के समीप उपस्थित हो उन्हें भक्ति सहित वन्दन किया और कहने लगा - "भगवन ! मैं गृहस्वामिनी भद्रा का पुत्र हूं। आपके इस पाठ को सुनकर मुझे जातिम्मरगा ज्ञान हो गया है। मैं अपने इस जन्म से पहले नलिनीगुल्म नामक विमान में देवता था । अब पुनः वहीं जाने के लिये मेरे मन में तीव्र उत्कण्ठा उत्पन्न हो चुकी है । आपके पास श्रमणत्व स्वीकार कर मैं पुनः वहीं नलिनीगुल्म विमान में जाना चाहता हूं । कृपा कर मुझे प्रव्रज्या प्रदान कीजिये।"
। प्राचार्य सुहस्ती ने उसे श्रमरगजीवन की दुष्करता से अवगत कराते हुए कहा - "सौम्य ! तुम अत्यन्त सुकुमार हो। लोहे के चने चबाना और अग्नि में खड़े रहना किसी के लिये साध्य हो सकता है पर जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्ररूपित श्रमणाचार का पालन करना बड़ा ही कठिन और दुस्साध्य कार्य है।"
अवन्तिसुकूमाल ने कहा - "भगवन ! प्रव्रज्या ग्रहण करने की मेरे मन में तीव्र उत्कण्ठा उत्पन्न हो चुकी है। मैं प्रव्रज्या तो अवश्य ही ग्रहण करूंगा। साधु समाचारी के अनुसार चिरकाल तक तो मैं निरतिचार थामण्य का परिपालन नहीं कर सकूगा अतः मैं प्रारम्भ में ही अनशन सहित श्रमणत्व ग्रहण करूगा और थोड़े समय के लिये घोरातिघोर कष्ट को भी साहसपूर्वक सहन कर लूंगा।"
अवन्तिसुकुमाल को अपने निश्चय पर अटल देखकर आर्य सुहस्ती ने कहा"भद्रानन्दन ! यदि तुम दीक्षित होने के लिये कृतसंकल्प हो तो इसके लिये तुम अपने स्वजनों की अनुमति प्राप्त करो।" ____तदनन्तर अवन्तिसुकुमाल ने अपनी माता और पत्नियों से उसे दीक्षार्थ अनुमति देने के लिये कहा किन्तु पूरी तरह प्रयास कर चुकने पर भी उसको स्वजनों से दीक्षा लेने की अनुमति नहीं मिली। अवन्तिसुकुमाल तो नलिनीगुल्म विमान में यथाशीघ्र जाने के लिये आतुर हो रहा था। उसने स्वयं ही केशलुंचन कर श्रमणवेष धारण कर लिया और वह आर्य सुहस्ती की सेवा में उपस्थित हुअा।
आर्य सुहस्ती ने अपने शरीर से भी निर्ममत्व और संसार से पूर्णरूपेण विरक्त अवन्तिसुकमाल को स्वयंग्रहीत साधुवेष में देखकर विधिपूर्वक श्रमण दीक्षा प्रदान को । तदनन्तर अवन्तिसुकुमाल ने प्रार्य सुहस्ती से निवेदन किया "प्रभो! में लम्बे समय तक श्रमणजीवन के कष्टों को सहन नहीं कर पाऊंगा अतः मुझे प्रामरण अनशनपूर्वक साधना करने की आज्ञा प्रदान कीजिये।"
मार्य सुहस्ती से प्राज्ञा प्राप्त कर अवन्तिसुकुमाल नगर से बाहर निर्जन श्मशान भूमि में पहुंचा और कायोत्सर्ग कर खड़ा हो गया। प्रत्यन्त सुकुमार अवन्तिसुकुमाल प्रथम बार ही नंगे पांवों इतनी दूर तक चला था प्रनः कंकरों
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