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जैन धर्म का प्र• एवं प्र०] दशपूर्वघर-काल : प्रार्य महागिरि-सुहस्ती
४५६ ने आर्य सुहस्ती की सेवा में पहुंच कर अनार्य प्रदेशों के निवासियों की जैन धर्म के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा का विवरण सुनाया, जिसे सुन कर आर्य सुहस्ती बड़े प्रसन्न हुए ।' ... सम्प्रति के सम्बन्ध में कतिपय जैन ग्रन्थों में इस प्रकार का उल्लेख मिलता है कि उसने भारत के प्रार्य एवं अनार्य प्रदेशों में इतने जिनमन्दिरों का निर्माण करवाया कि वे सारे प्रदेश जिन-मन्दिरों से सुशोभित हो गये ।।
- राजा सम्प्रति द्वारा किये गये कार्यों के सम्बन्ध में प्रसिद्ध जैन इतिहासवेसा स्व० मुनि श्री कान्ति सागरजी ने कुछ अंशों की जो पाण्डुलिपि तैयार की, उसके एतद्विषयक अंश को यहां अविकल रूप से दिया जा रहा है :
"यह एक आश्चर्य की बात है कि मौर्य साम्राज्य के इतिहास में सम्प्रति के संबंध में जो कुछ भी उल्लेख मिलता है, वह उसके कृतित्व पर वास्तविक प्रकाश नहीं डालता। जैन साहित्य में सम्प्रति के सम्बन्ध में विशद विवेचन उपलब्ध है। उस विवेचन के अनुसार सम्प्रति ने जैन संस्कृति के प्रचार व प्रसार के लिये अपने पुत्रों तथा प्रसूर्यपश्या कहलाने वाली अपनी पुत्रियों तक को कृत्रिम मुनियों का व साध्वियों का वेष धारण करवा कर अपने अनेकों सामन्तों के साथ दूर-दूर प्रदेशों में भिजवाया और इस तरह अशोक के आदर्श को सम्प्रति ने अपने जीवन में भी मूर्त रूप दिया।
चूरिण और नियुक्तियों में यह भी सूचित किया गया है कि सम्प्रति ने प्रचुर मात्रा में जिन-मूत्तियों की, मन्दिरों एवं देवशालाओं में स्थापना करवा कर जन संस्कृति और सभ्यता को स्थान-स्थान पर फैलाया था।
जहां तक जैन मूर्ति-विधान एवं उपलब्ध पुरातन अवशेषों का प्रश्न है, यह बिना किसी संकोच के कहा जा सकता है कि राजा सम्प्रति द्वारा निर्मित मन्दिर या मूर्तियां भारतवर्ष के किसी भी भाग में आज तक उपलब्ध नहीं हो पाई हैं। श्वेत पाषाण की कोहनी के समीप गांठ के माकार के चिह्न वाली प्रतिमाएं जैन समाज में प्रसिद्ध रही हैं और उन सभी का सम्बन्ध राजा सम्प्रति से स्थापित किया जाता है। ऐसी प्रतिमाओं के अनेक स्थानों पर प्रतिष्ठापित होने का भी उल्लेख किया गया है। मेरी विनम्र सम्मति के अनुसार ये श्वेत पाषाण की प्रतिमाएं सम्प्रति अथवा मौर्य काल की तो क्या तदुत्तरवर्ती काल की भी नहीं कही जा सकतीं। ' एवं राज्ञोऽतिनिबन्धादाचार्यः केऽपि साधवः । विहर्तुमादिदिशिरे ततोन्द्रमिलादिषु ||६|| निरवद्यं श्रावकत्वमनार्येष्वपि साधवः । दृष्ट्वा गत्वा स्वगुरवे पुनराख्यन्सविस्मयाः ॥१०॥ परि० पर्व, स० ११ २ येन सम्प्र तिना त्रिखंगमितापि मही जिनप्रासादमंडिता विहिता, साधुवेश-धारिनिजवंडपुरुषप्रेषणेनानायंदेशेऽपि साधुबिहार: कारितः ।
[तपागन्य पट्टापली]
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