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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [विसंभोग का प्रारम्भ ऐतिहासिक घटनाक्रम और प्राचीन उल्लेखों से यह निर्विवाद रूप से ज्ञात होता है कि अशोक के राज्याभिषेक के कतिपय वर्ष पश्चात् राजकुमार कुणाल को चक्षुविहीन कर दिया गया और अन्धा हो जाने के कारण कुमारभुक्ति में मिला हुआ.उज्जयिनी का राज्य उससे ले कर दूसरे राजकुमार को दे दिया गया। सम्प्रति का जन्म होने पर अन्ध कुमार कुणाल ने गन्धर्व कला से अशोक को प्रसन्न कर काकिणी-राज्य की अपने सद्यःजात पुत्र के लिये याचना की । वस्तुस्थिति से अवगत होते ही प्रशोक ने तत्काल सम्प्रति को यूवराज पद प्रदान कर अपना उत्तराधिकारी घोषित किया और तत्कालीन राज्यपरम्परा के अनुसार उज्जयिनी का राज्य शिशु सम्प्रति को कुमारभुक्ति के रूप में प्राप्त हुप्रा । ये सब घटनाएं अशोक के राज्यकाल की हैं और अशोक का राज्याभिषेक वीर निर्वाण संवत् २५८ में होने के कारण द्रमक के दीक्षित होने से लेकर सम्प्रति के जन्म तक की सभी घटनाएं प्रार्य महागिरि के स्वर्गगमन के अनन्तर कम से कम १३ वर्ष से पहले की तो किसी भी दशा में नहीं हो सकतीं।
ऐसी स्थिति में आर्य महागिरि का सम्प्रति के जन्म समय अथवा उसके राज्यकाल में विद्यमान होना तो दूर द्रमक की दीक्षा के समय भी आर्य महागिरि का अस्तित्व संभव नहीं होता। कारण कि आर्य महागिरि का स्वर्गवास अशोक के राज्याभिषेक से १३ वर्ष पहले वीर नि० सं० २४५, तदनुसार बिन्दुसार के राज्यकाल में ही हो चुका था।
राजा सम्प्रति द्वारा जैन धर्म का प्रचार एवं प्रसार जैन साहित्य में मौर्य सम्राट् सम्प्रति को वही स्थान प्राप्त है जो कि मौर्य सम्राट अशोक को बौद्ध साहित्य में। अनेक जैन ग्रंथों में इस प्रकार के उल्लेख उपलब्ध होते हैं कि राजा संप्रति ने प्रार्य सुहस्ती से प्रतिबोध पाने के पश्चात् समस्त भारतवर्ष ही नहीं अनेक अनार्य प्रदेशों में भी अपने अधिकारियों, कर्मचारियों और सैनिकों को जैन साधुओं के वेश में भेज कर जैन धर्म का सर्वत्र प्रचार एवं प्रसार किया तथा उसने अपने समस्त सामन्तों को दृढ़ जैनधर्मावलम्बी बनाया। साधु के वेश में सम्प्रति के कर्मचारियों ने अनार्य देशों में विचरण कर वहां की अनार्य जनता को श्रावक के कर्तव्यों एवं श्रमणाचार से परिचित कराते हुए उन अनार्य देशों को श्रमणों के विहार के योग्य बना डाला । राजा सम्प्रति की प्रार्थना पर प्रार्य सुहस्ती ने अपने कतिपय श्रमणों को अनार्य भूमि में धर्म का प्रचार करने के लिये भेजा और उन्होंने वहां के लोगों की जैनधर्म के प्रति अपूर्व श्रद्धा देख कर हर्ष का अनुभव किया। साधुओं ने प्रार्य देश की तरह बड़ी सुगमता से अनार्य प्रदेशों में विहार करते हुए वहां जैन धर्म का अधिकाधिक प्रचार एवं प्रसार किया । त्यागी, तपस्वी और ज्ञानधनी सन्तों के उपदेशों का अनार्य प्रदेशों की जनता पर बड़ा प्रभाव पड़ा और उन लोगों के आचार-विचार में एक प्रकार की क्रान्ति सी आ गई । अनार्य प्रदेश के निवासियों ने बड़ी संख्या में श्रावकधर्म अंगीकार किया । अनार्य प्रदेशों में धर्म-प्रचार करने के पश्चात् लौटे हुए साधुओं
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