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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ विसंभोग का प्रारम्भ
उसके राजपिण्ड होने की शंका हुई और उन्होंने आर्य सुहस्ती से यह जाँच करने ये कहा कि कहीं साधुनों को सदोष आहार तो भिक्षा में नहीं मिल रहा है । सुहस्ती ने बिना किसी प्रकार की जांच किये ही कह दिया- “यथा राजा तथा प्रजा, महाराज ! यह राजपिण्ड नहीं है । कारण कि तैली तैल, घृत वाले घी, कपड़े वाले वस्त्र और हलवाई भोज्य मिष्टान्न स्वयं ही देते हैं ।"
प्रार्य सुहस्ती का उत्तर सुन कर प्रायं महागिरि ने विचार किया - यह मायावी है, शिष्यानुराग के कारण सदोष आहार ग्रहरण से साधुओं को रोक नहीं रहा है। उन्हें प्रार्य सुहस्ती पर क्षोभ हुआ और उन्होंने श्रार्य सुहस्ती से कहा"आर्य ! तुम्हारे समान दोषादोष के ज्ञाता भी अपने शिष्यों के प्रति राग के कारण राजपिण्ड का उपभोग करते हैं, तो ऐसी दशा में मैं प्राज से तुम्हारे साथ साध्वोचित भोजनादि व्यवहार विषयक सम्बन्धों का विच्छेद करता हूं ।"
यह कह कर आर्य महागिरि ने प्रार्य सुहस्ती के साथ तत्काल साम्भोगिक सम्बन्ध विच्छेद कर दिया। इस प्रकार संयममार्ग की शिथिलता दूर करने हेतु महागिरि को सुहस्ती के प्रति उपालम्भ देते समय तीक्ष्ण एवं कटु शब्दों का भी प्रयोग करना पड़ा । तदनन्तर प्रार्य सुहस्ती ने अपना मोड़ (रुख) बदल कर इसके लिये पश्चात्ताप किया और बोले - "भगवन् ! भविष्य में सदोष प्रहार नहीं लिया जायगा ।"
इस पर ग्रार्य महागिरि ने उस समय तो प्रार्य सुहस्ती के साथ सांभोगिक व्यवहार प्रारम्भ कर दिया पर कालान्तर में यह सोचते हुए कि 'प्रायः मानवस्वभाव में माया का बाहुल्य है" - उन्होंने प्रार्य सुहस्ती के साथ सांभोगिक व्यवहार बन्द ही रखा।
संभोगविच्छेद के सन्दर्भ में प्रस्तुत की गई घटना में यह बताया गया है कि सम्प्रति के राज्यकाल में प्रार्य महागिरि ने सुहस्ती द्वारा सदोष आहार आदि ग्रहण की प्रवृत्ति को देख कर उनके साथ संभोगविच्छेद कर दिया। यहां पर आर्य महागिरि का सम्प्रति के राज्यकाल में विद्यमान रहना बताया गया है पर ऐतिहासिक तथ्यों के आलोक में देखने पर सम्प्रति का महागिरि के समय में विद्यमान होना प्रमाणित नहीं होता ।
महागिरि के समय में सम्प्रति के विद्यमान न होने के निम्नलिखित ऐतिहासिक प्रमारण गहराई से विचारने योग्य हैं :
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१. श्वेताम्बर परम्परानुसार वी० नि० सं० २४५ में आर्य महागिरि का स्वर्गवास माना गया है ।
२. ग्रार्य महागिरि के स्वर्गगमन के समय में विन्दुसार का राज्यकाल था जो वीर नि० सं० २५८ तक रहा ।
។ अज्ज महागिरी उवउत्तो, पायेण मायाबहुला मरगुय 'त्ति काउ विसंभोगं ठवेति ।
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[ निशीथभाष्य, भा० २, पृ० ३६२ ( गा० २१५४ की ब्राण ) ]
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