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सम्प्रति का पूर्वभव] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य महागिरि-सुहस्ती
४५५ श्रद्धालु गृहस्थ उन्हें भिक्षाटन के समय पर्याप्त मात्रा में प्रशनपानादि प्रदान करते थे। एक समय कोशाम्बी में भिक्षाटन करते हुए मेरे शिष्य एक गृहस्थ के घर में पहुंचे। उनके पीछे-पीछे एक दीन, हीन, दरिद्र और भूखे भिक्षुक ने उस गृहस्थ के घर में प्रवेश किया। उस गृहस्थ ने साधुओं को तो पर्याप्त रूपेण भोजन-पानादि का दान किया किन्तु उस भिक्षक को उसने कुछ भी नहीं दिया। वह भूखा भिक्षुक साधुओं के पीछे हो लिया और उनसे भोजन की याचना करने लगा। साधुनों ने उससे कहा कि वे लोग तो अपने साधु आचार के अनुसार किसी गृहस्थ को कुछ भी नहीं दे सकते । भूख से पीड़ित वह भिक्षुक मेरे शिष्यों का अनुसरण करता हुअा मेरे स्थान पर पहुंच गया। उसने मुझसे भी भोजन की याचना की। मुझे ज्ञानोपयोग से ऐसा विदित हा कि अगले जन्म में यह भिक्षक.जिनशासन का प्रचार एवं प्रसार करने वाला होगा। मैंने उससे कहा कि यदि तुम श्रमणधर्म में दीक्षित हो जामो तो तुम्हें हम तुम्हारी इच्छानुसार पर्याप्त भोजन दे सकते हैं। भिक्षुक ने यह सोच कर कि उसकी इस दीन-हीन दुखद अवस्था की तुलना में तो श्रमरण-जीवन के कष्ट सहना कठिन नहीं है, तत्काल मेरे पास श्रमणदीक्षा ग्रहण कर ली । दीक्षित हो जाने पर वह हमारे द्वारा भिक्षा में प्राप्त भोजन का अधिकारी हो गया प्रतः उसे उसकी इच्छानुसार भोजन खिलाया गया। वस्तुतः वह कई दिनों का भूखा था अतः उसने जी भर कर स्वादिष्ट भोजन खाया। रात्रि में उस नवदीक्षित भिक्षुक की उदरपीड़ा के कारण मृत्यु हो गई और वह अशोक के अन्ध राजकुमार कुणाल के यहां पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ। राजन् ! तुम वही भिक्षक हो जो अपने इस सम्प्रति के भव से पहले के भव में मेरे पास दीक्षित हुए थे। यह सब तुम्हारे एक दिवस के श्रमणजीवन का फल है कि तुम बड़े राजा बने हो।"
बमणसंध में विसंमोग का प्रारम्भ निशीथ भाष्य, चूणि मादि ग्रन्थों में स्पष्ट उल्लेख है कि भगवान महावीर के शासन में प्राचार्य सुधर्मा से स्थूलभद्र तक श्रमरणसंघ का परस्पर सांभोगिक व्यवहार प्रक्षुण्ण बना रहा। श्रमणसंघ में संभोगविच्छेद की सर्वप्रथम घटना प्रार्य महागिरि और प्रार्य सुहस्ती के प्राचार्यकाल में घटित हुई। संभोग-विच्छेद का प्रारम्भ कब, क्यों और किसके समय में प्रारम्भ हुआ, इसका विशद परिचय देते हुए निशीथ एवं वृहत्कल्प-चूरिण में उल्लेख किया गया है कि राजा सम्प्रति द्वारा दुष्काल के समय खोली गई दानशालाओं तथा प्रसारित किये गये उदारतापूर्ण आदेशों के कारण कर्मचारी वर्ग एवं प्रजाजनों के माध्यम से श्रमणों को भिक्षा में पर्याप्त एवं विशिष्ट भोजन मिलता देख कर आर्य महागिरि को ' परिशिष्ट पर्व, सर्ग ११ २ संभूयस्स थूलभद्दो, थूलभदं जाव सव्वेसि एक्कसंभोगो मासी ।
[निशीथ चूणि, भा० २ पृ. ३६०]
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