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४६२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [उत्कट साधना का प्रतीक तथा कंटकों से उसके पादतल बिंध गये और उन व्रणों से खून टपकने लगा। बड़े धैर्य के साथ इस पीड़ा को तथा भूख-प्यास के कष्टों को सहन करते हुए वह आत्मचिन्तन में तल्लीन हो गया। सूर्य की प्रखर किरणों से श्मशानभूमि आग की तरह तपने लगी पर अवन्तिसुकुमाल ने बड़ी शान्ति के साथ उसे सहन किया। दिन ढलने लगा, सूर्यास्त हुना, शनैः शनैः अन्धकार ने अपना साम्राज्य जमा लिया। यत्र-तत्र वनैले हिंस्र जन्तुओं के दिल दहला देने वाले आक्रन्दारावों से वह भीषण रात्रि साक्षात् कालरात्रि के समान भयावह बन गई थी। किन्तु सद्यः प्रवजित सुकुमार श्रमण अवन्तिसुकुमाल उस श्मशानभूमि में परम शान्त, दान्त एवं विरक्त अवस्था में एकाग्र चित्त हो ध्यानमग्न खड़े रहे। उनके पदचिह्नों पर लहूमिश्रित धूलिकरणों की गन्ध का अनुसरण करती हुई एक श्रृगालिनी अपने कतिपय बच्चों के साथ अवन्तिसुकुमाल मुनि के पास आ पहुंची। मुनि के पैरों से टपके हुए लहूकरणों की गन्ध पा कर उसने मुनि के पैरों को चाटना प्रारम्भ किया। प्राध्यात्मिक ध्यान में रमण करते हुए मुनि निश्चल खड़े रहे। मुनि की ओर से किसी भी प्रकार का प्रतिरोध न होता देख कर श्रृगालिनी का साहस बढ़ा। उसने मुनि के पैर की मांसल पिण्ड्ली में दांत गडा दिये। गरम-गरम खून की धाराएँ बह निकलीं। अपने बच्चों सहित श्रृंगालिनी लहपान के साथ-साथ मुनि के पैर को काट-काट कर खाने लगी। क्रमशः मुनि का ध्यान चिन्तन की मनोभूमि के उच्च से उच्चतर सोपान पर चढ़ने लगा । विना किसी प्रकार का प्रतिरोध किये मुनि शान्त चित्त हो सोचने लगे – “यह श्रृगालिनी मेरे कर्मकलुष को काट-काट कर मेरे लिये नलिनीगुल्म विमान के कपाट खोल रही है।" श्रृगालिनी और उसके बच्चों ने मूनि का दूसरा पैर भी काट-काट कर खाना प्रारम्भ कर दिया। मुनि का शरीर पृथ्वी पर गिर पड़ा किन्तु उनका ध्यान अधिकाधिक ऊंचाई पर चढ़ता गया। मुनि की दोनों जंघाओं और भुजदण्डों को खा चुकने के पश्चान् श्रृगाल-परिवार ने उनके पेट को चीर फाड़ कर खाना प्रारम्भ किया। मुनि ने भी अपने अात्मचिन्तन को शुभ से शुभतर बनाना प्रारम्भ किया और अन्ततोगत्वा समाधिपूर्वक प्राणेत्सर्ग कर मुनि अवन्ति सुकुमाल अपने प्रिय लक्ष्यस्थान नलिनीगुल्म विमान में देवरूप से उत्पन्न हुए।
। दूसरे दिन आर्य सुहस्ती से सब वृत्तान्त ज्ञात होने पर अवन्तिसूकमाल की माता भद्रा ने अपनी एक भिणी पुत्रवधु को छोड़ कर शेष ३१ पुत्रवधुओं के साथ श्रमणीधर्म की दीक्षा ग्रहण की। प्राचार्य हेमचन्द्र द्वारा परिशिष्ट पर्व में किये गये उल्लेख के अनुसार अवन्तिसुकुमाल के पुत्र ने अपने पिता की स्मृति में उनके मरणस्थल पर एक विशाल देवकुल का निर्माण करवाया जो आगे चल कर महाकाल के नाम से विख्यात हप्रा।'
--...-...- . - - - - - ---- -------- ' गुा जातेन पुत्रेण चक्रे देवकुलं महत् ।
प्रवन्तिसुकुमालस्य मरणस्थानभूतले ।। १७६।। तद्देवकुलमद्यापि विद्यतेऽवन्तिभूषणम् । महाकालाभिषानेन लोके प्रथितमुच्चकैः ।।१७७।। [परिशिष्ट पर्व, सर्ग ११,
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