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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग वणिक का ष्टात शिष्य । आपने मुझे मोक्ष का मार्ग दिखा दिया है । मैंने यह दृढ़ निश्चय कर लिया है कि मैं अब आपके साथ ही प्रवजित हो कर जीवनभर अापकी सेवा करूंगा। आप मुझे शिष्य रूप से स्वीकृत करें।" ।
जम्बूकुमार ने स्वीकृति सूचक स्वर में कहा - "अच्छा ।" जम्बकुमार द्वारा स्वीकृति सूचक शब्द के उच्चारण के साथ ही प्रभव के पांच सौ स्तंभित साथी स्तंभन से विमुक्त हो गये। प्रभव ने अपने सब साथियों को प्रादेश देकर सब सम्पत्ति को जहां से हटाया था वहां यथास्थान रखवा दिया और वह जम्बूकुमार से अनुमति ले कर दीक्षार्थ अपने पिता की आज्ञा लेने हेतु तत्काल अपने साथियों सहित जयपुर नगर की ओर प्रस्थान कर गया।
प्रमव की बीमा और सापना ... घर पहुंच कर प्रभव कुमार ने अपने कुटुम्बियों से प्राज्ञा प्राप्त की और दूसरे ही दिन अपने ५०० साथियों के साथ सुषर्मा स्वामी की सेवा में उपस्थित हो आर्य जम्बू के अनन्तर उनके २६ प्रात्मीयों एवं अपने ५०० साथियों के साथ भागवती दीक्षा ग्रहण कर ली। इस प्रकार डाकुनों एवं लुटेरों के अग्रणी प्रभव साधकों के अग्रणी प्रभवस्वामी बन गये । जैसा कि जम्बूस्वामी के प्रकरण में पहले बताया जा चुका है, कुछ ग्रन्थकार जम्बू के पश्चात् कालान्तर में प्रभव का दीक्षित होना मानते हैं पर इस सम्बन्ध में कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं होते। दीक्षा ग्रहण के समय आर्य प्रभव की अवस्था ३० वर्ष की थी। प्रार्य प्रभव विवाहित थे अथवा अविवाहित, एतद्विषयक कहीं कोई स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध नहीं होता।
दीक्षा-ग्रहण के पश्चात प्रार्य प्रभव ने विनयपूर्वक आर्य जम्बूस्वामी के पास ११ अंगों एवं १४ पूर्वो का सम्यक् रूप से अध्ययन किया और अनेक प्रकार की कठोर तपश्चर्याएं कर के तपस्या की प्रचण्ड अग्नि में अपने कर्मसमूह को ईंधन की तरह जलाने लगे। दीक्षित होने के पश्चात् ६४ वर्ष तक उन्होंने जम्बूस्वामी की सेवा करते हुए साधक के रूप में श्रमरण धर्म का पालन किया। तदनन्तर वीर निर्वाण संवत् ६.४ में आर्य जम्बूस्वामी द्वारा प्राचार्यपद प्रदान किये जाने और प्रार्य जम्बूस्वामी के निर्वाण के पश्चात् प्रभवस्वामी प्राचार्य बने । अपनी मात्मा के उद्धार के साथ-साथ प्रभवस्वामी ने युगप्रधान प्राचार्य के रूप में भगवान महावीर के शासन की बड़ी निष्ठा और लगन के साथ महती सेवा एवं प्रभावना की।
उत्तराधिकारी के लिये चिन्तन एकदा रात्रि के समय प्राचार्य प्रभवस्वामी योगसमाधि लगाये ध्यान में मग्न थे। शेष सभी साधु निद्रा में सो रहे थे । अर्द्धरात्रि के पश्चात ध्यान की परिसमाप्ति पर उनके मन में विचार पाया कि उनके पश्चात् भगवान् महावीर के सुविशाल धर्मसंघ का सम्यक् रूपेण संचालन करने वाला पट्टधर बनाने योग्य
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