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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [पा० में प्रागम-वाचना द्वादशांगी के अनुक्रम से एक-एक अंग की समीचीनरूपेण वाचना में श्रमणों के पारस्परिक प्रात्यन्तिक सहयोग से विस्मृत पाठों को यथातथ्यरूपेण संकलित कर लिया गया। कतिपय मासों के अनवरत एवं अथक प्रयास से सम्पूर्ण एकादशांगी की वाचना संपन्न हुई। सब साधुओं ने अपने विस्मृत पाठों को उन साधुनों से सुन-सुन कर कण्ठस्थ किया जिनको कि वे कण्ठस्थ थे। इस प्रकार श्रमणसंघ की दूरदर्शिता और परस्पर सहयोग एवं आदान-प्रदान की वृत्ति ने एकादशांगी को विनष्ट होने से बचा लिया। दुष्काल के दुस्सह ताप से शुष्क श्रतसागर पुनः श्रमणसंघ के मानस में अपनी पूर्ववत् अथाह ज्ञान-जलराशि और उत्ताल तरंगों के साथ कल्लोलित हो उठा।
एक विकट समस्या एकादशांगी की वाचना के समीचीनतया सम्पूर्ण होते ही श्रमणसंघ के समक्ष श्रुत की रक्षा के विषय में एक विकट समस्या उपस्थित हो गई। वह यह कि उपस्थित श्रमणों में द्वष्टिवाद का ज्ञाता एक.भी श्रमण विद्यमान नहीं था। श्रमणसंघ के प्रत्येक साधु को पूछा गया कि क्या उनमें कोई चतुर्दश पूर्वधर है ? पर सब का उत्तर नकारात्मक था। इस पर श्रमरणसंघ को बड़ी चिन्ता हुई कि बिना दृष्टिवाद के भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित प्रवचनों के सार को किस प्रकार धारण किया जा सकता है ? ' गम्भीर मन्त्रणा के पश्चात् श्रमसंघ को पाशा की एक किरण दृष्टिगोचर हुई। संघ के समक्ष कतिपय श्रमणों ने यह बात रखी कि समस्त श्रमसंघ में केवल प्राचार्य भद्रबाहु ही चतुर्दशपूर्वधर हैं। वे इस समय नेपाल में महाप्राण ध्यान की साधना कर रहे हैं। केवल वे ही चतुदर्श पूर्वो की सम्पूर्ण वाचनाएं श्रमरणों को दे कर दृष्टिवाद को नष्ट होने से बचा सकते हैं। संघ के समक्ष यह विचार भी रखा गया कि इस प्रकार की उच्चकोटि की आध्यात्मिक साधना में निरत आचार्य भद्रबाह श्रमणों को पूर्वो की वाचना देना स्वीकार न करें तो उस दशा में क्या उपाय किया जाय ।
अन्ततोगत्वा श्रमरणसंघ द्वारा यही निश्चय किया गया कि श्रमणों के एक विशाल संघाटक को भद्रबाहु के पास नेपाल भेज कर संघ की ओर से प्रार्थना की जाय कि वे साधुओं को चतुर्दश पूर्वो की वाचनाएं दे कर श्रुतसागर की रक्षा करें। श्रमरणसंघ के इस निर्णय के अनुसार स्थविरों के तत्वावधान में श्रमणों का एक बड़ा संघाटक पाटलीपुत्र से नेपाल की मोर प्रस्थित हुआ । श्रुतरक्षा की पावन एवं अमिट अभिलाषा लिये हुए उग्र विहार करता हुआ वह श्रमणों का संघाटक कुछ ही दिनों में प्राचार्य भद्रबाहु की सेवा में नेपाल पहंचा । सविधि वंदन के पश्चात् उस संघाटक के मुखिया स्थविरों ने उस समय के सर्वसत्तासम्पन्न प्राचार्य भद्रबाह की सेवा में संघ की ओर से निवेदन किया - "केवली तुल्य भगवन् ! पाटलीपुत्र में एकत्रित श्रमणसंघ ने एकादशांगी वाचना के अनन्तर ' ते विति सव्व सारस्स दिठिवायस्स नत्थि पडिसारो। कह पुब्वगएग विणा, पवयणसारं घरेहामो ॥१५।। [तित्योगालियपइण्णा (अप्रकाशित)]
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