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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [आर्य महा० की साधना तदनन्तर श्रेष्ठिपरिवार को प्रतिबोध देकर प्रार्य सहस्ती अपने स्थान पर लौट गये। श्रेष्ठी वसूभूति ने अपने घर के सब लोगों को समझा दिया कि वे मुनि जब कभी इस घर में भिक्षार्थ आयें तो उन्हें यह अभिव्यक्त करते हुए भिक्षा में समुचित भोज्य सामग्री दें कि भगवन् ! यह सब कुछ हम बाहर डाल रहे थे।
दूसरे दिन प्रार्य महागिरि भिक्षार्थ श्रेष्ठी वसुभूति के घर पधारे तो श्रेष्ठी के भृत्यों एवं परिजनों ने विपुल भोजन सामग्री को त्याज्य बताते हुए उन्हें भिक्षा में देना चाहा। महातपस्वी महागिरि ने ज्ञानोपयोग से समझ लिया कि वह भिक्षा उनके अभिग्रह के अनुसार विशुद्ध और निर्दोष नहीं है अतः वे बिना भिक्षा ग्रहण किये ही श्रेष्ठी के घर से लौट गये।
तत्कालीन श्रमणसंघ में प्राचार्य महागिरि का स्थान सर्वोच्च माना जाता रहा है। वे पूर्वज्ञान के विशिष्ट अभ्यासी होने के साथ-साथ विशुद्ध आचार के भी सबल समर्थक एवं पोषक थे। उन्हें आहार, विहार एवं संयम में स्वल्पमात्र भी शिथिलता सह्य नहीं थी। जब उन्होंने श्रेष्ठी वसुभूति की धर्मभक्ति और रागवश सदोष आहार देने की प्रवृत्ति देखी तो उन्होंने एक दिन आर्य सुहस्ती से कहा"सुहस्तिन् ! कल तुमने श्रेष्ठिपरिवार के समक्ष मेरे प्रति विनय प्रदर्शित कर वहां मेरे लिये अनेषणा की स्थिति पैदा कर दी। तुम्हारे मुख से प्रशंसा सुनकर उन लोगों ने आज मुझे भिक्षा में देने हेतु भोजन परित्यक्त के रूप में सजा रखा था।"
आर्य सुहस्ती ने आर्य महागिरि के चरणों पर अपना मस्तक रखते हुए क्षमायाचना की और कहा - "भगवन् ! भविष्य में मैं ऐसा कभी नहीं करूंगा।"
इस प्रकार उच्छिन्न जिनकल्प के अनुसार साधुचर्या का पालन करते हुए आर्यगिरि ने अनेक वर्षों तक बड़ी उग्र तपस्याएं करके अपने समय में एक उच्च कोटि के श्रमणजीवन का मापदण्ड स्थापित किया। वे अपने समय के अद्वितीय चारित्रनिष्ठ और उच्चकोटि के श्रमणश्रेष्ठ थे। अन्त में वे एलकच्छ (दशार्णपुर) के पास गजाग्रपद नामक स्थान पर पधारे और वहां उन्होंने अनशन कर वीर निर्वाण सं० २४५ में १०० वर्ष की आयु पूर्ण कर समाधिपूर्वक स्वर्गारोहण किया।
मार्य महागिरिकालीन राजवंश यह पहले बताया जा चुका है कि आर्य स्थूलभद्र के प्राचार्यकाल के अन्तिम दिनों में (वीर नि० सं०२१५ में) मौर्य राजवंश का अभ्युदय हुमा । आर्य महागिरि के प्राचार्यत्वकाल में इस राजवंश के प्रथम राजा चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने प्रेरणास्रोत महामात्य चाणक्य के परामर्शानुसार अनेक वर्षों तक विदेशी और प्रान्तरिक राजसत्ताओं के साथ संघर्षरत रहते हुए समस्त भारत को अपने सुदृढ़ शासनसूत्र में बांध कर एक सार्वभौम सत्तासम्पन्न, सशक्त एवं विशाल साम्राज्य की स्थापना की। उसने काबुल और कन्धार से भी यूनानी विजेता सेल्यूकस को खदेड़ कर उन प्रदेशों को वृहत्तर भारत की राज्यसीमा में सम्मिलित किया।
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