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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मौर्य सम्राट अशोक प्रकार के अनेक तथ्य हैं, जिनके सम्बन्ध में गहन शोध की आवश्यकता है । मौर्यकालीन शिलालेखों में उपलब्ध प्रियदर्शी और देवानांप्रिय शब्द जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराओं में समान रूप से व्यवहृत होते रहे हैं। इसके विपरीत कुछ विद्वानों द्वारा देवानांप्रिय शब्द को बौद्ध परम्परा का शब्द तथा प्रियदर्शी शब्द को अशोक का उपनाम माना जाता रहा है, इस कारण भी अनेक भ्रान्तियां हुई हैं । इन सब तथ्यों के सम्बन्ध में भी नये सिरे से शोधकार्य अपेक्षित है। __यों तो मौर्यवंशी सभी मगध के सम्राट् बड़े प्रतापी, प्रजावत्सल, न्यायप्रिय और धर्मनिष्ठ हुए हैं पर प्रेम, सौहार्द और सौजन्य से अपने देश के ही नहीं अपितु विदेशी एवं विजातीय कोटि-कोटि लोगों के हृदयों को सामूहिक रूप से जीतने का भारतीय संस्कृति का जो अनुपम उदाहरण मौर्य सम्राट अशोक ने विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया, उस प्रकार का उदाहरण विश्व के इतिहास में अन्यत्र कहीं खोजने पर भी उपलब्ध नहीं होगा।
बौद्ध धर्म के प्रचार और प्रसार में मौर्य सम्राट अशोक ने जो उल्लेखनीय कार्य किये हैं, उनके कारण बौद्ध धर्म के इतिहास में अशोक का नाम चिरकाल तक पादर के साथ स्मरण किया जाता रहेगा। २४ वर्ष तक मगध के साम्राज्य का संचालन करने के पश्चात् वीर नि० सं० २८२ में मौर्य सम्राट अशोक का देहावसान हुआ।
वौद्ध ग्रन्थों में अशोक का राज्यकाल ४१ वर्ष बताया गया है। उसकी विद्वानों द्वारा इस प्रकार संगति बैठाई जाती है कि बिन्दुसार की मृत्यु के ४ वर्ष पश्चात् अशोक का राज्याभिषेक हुआ। तदनन्तर अशोक ने २४ वर्ष तक सम्राट बने रह कर शासन किया और उसके पश्चात् अपने अल्पवयस्क पौत्र सम्प्रति को मगध का सम्राट बना कर उसके अभिभावकः ( Regent ) के रूप में १३ वर्ष तक साम्राज्य की बागडोर को सम्हाले रखा। तदनन्तर अशोक ने अपना शेष जीवन सब प्रपंचों का परित्याग कर आत्मकल्याण में व्यतीत किया। कतिपय इतिहासज्ञों की मान्यता है कि अशोक अपने जीवन के अन्तिम चार वर्षों में पुनः जैन धर्मावलम्बी बन गया था।
मौर्य सम्राटों के सत्ताकाल के सम्बन्ध में विभिन्न मान्यताओं के ग्रंथों में पर्याप्त मतभेद पाया जाता है। "जैन ग्रन्थों में भी इस सम्बन्ध में दो प्रकार की मान्यताएं अभिव्यक्त की गई हैं। पहली मान्यता के अनुसार वीर निर्वाण सं० २१५ में नन्दवंश के अंत के साथ मौर्य राजवंश का अभ्युदय माना गया है। दूसरी मान्यता के अनुसार वीर निर्वाण सं० १५५ में नन्द वंश के अन्त के साथ मौर्यवंश के उदित होने का अभिमत प्रकट किया गया है।
____वस्तुतः द्वितीय भद्रवाहु के पास दीक्षित हुए चन्द्रगुप्ति नामक अवन्ती के किसी राजा के दीक्षित होने की घटना को श्रुतकेवली भद्रवाह और मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त से सम्बद्ध करने के प्रयास में ही उपरोक्त दूसरी मान्यता प्रचलित की
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