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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्राचार्य-पद नन्दी सूत्र की चूणि' पार्य महागिरि और सुहस्ती की प्राचार्य-परम्पराओं के पृथक-पृथक रूप में अस्तित्व का स्पष्ट उल्लेख किया गया है फिर भी निशीथ चूणिकार ने प्रार्य महागिरि को प्राचार्य न मानकर केवल आर्य सुहस्ती को ही स्थूलभद्र स्वामी द्वारा गण सम्हलाये जाने की मान्यता अभिव्यक्त की है, इसके पीछे उनका क्या उद्देश्य है - यह नहीं कहा जा सकता।
इस प्रकार की स्थिति में सहज ही अनेक प्रश्न उठ सकते हैं। क्या आर्य महागिरि प्राचार्य नहीं थे ? यदि थे तो किस गण के, स्थूलभद्र स्वामी द्वारा गण दिये जाने के समय तक प्रार्य सुहस्ती १० पूर्वो के ज्ञाता हो चुके थे अथवा उसके पश्चात् हुए ? यदि उसके पश्चात् हुए तो उन्होंने १० पूर्वो का ज्ञान किन से प्राप्त किया और तब तक गण के प्राचार्य कौन रहे आदि अनेक प्रश्न स्पष्ट निर्णय की अपेक्षा रखते हैं। इन सब प्रश्नों का समुचित समाधान आर्य महागिरि को आचार्य मानने पर ही हो सकता है।
ऐसी स्थिति में यह संभव है कि चूणिकार ने पश्चाद्वर्ती किसी मतभेद से प्रभावित होकर निशीथचूरिण में इस प्रकार का उल्लेख किया हो ।
इन दोनों प्राचार्यों के प्राचार्यकाल में जैन धर्म का भारतवर्ष के सुदूर प्रदेशों में प्रचार एवं प्रसार हुआ। यों तो प्राचार्य भद्रबाहु के शिष्य गोदास से निकले हुए गोदासगण की ताम्रलिप्तिका, कोटिवर्षिका, पुण्ड्रवर्द्धनिका आदि शाखाएं क्रमशः दक्षिण बंगाल के तत्कालीन प्रसिद्ध बन्दर ताम्रलिप्ति, पश्चिमी बंगाल के कोटिवर्ष नगर और उत्तरी बंगाल की तत्कालीन राजधानी पुण्ड्रवर्द्धन में फैल चुकी थीं किन्तु फिर भी जैन परम्परा का प्रधान केन्द्र मुख्यतः मगध प्रदेश ही रहा । इन दोनों प्राचार्यों के समय में अवन्ती प्रदेश का भी जैन परम्परा के एक सुदृढ़ केन्द्र के रूप में आविर्भाव हुा । ११ अंग और १० पूर्वो के विशिष्ट अभ्यासी इन दोनों प्राचार्यों ने जैन परम्परा को उत्कर्ष की एक उल्लेखनीय सीमा तक पहुंचा दिया।
__इन महान् आचार्यों के शान्त, दान्त, तपःस्वाध्यायपूत आदर्श श्रमरण-जीवन से श्रमणों तथा अन्य साधकों ने महती प्रेरणा प्राप्त की और अपने जीवन को उज्ज्वल और आदर्श बनाये रखा।
प्रार्य महागिरि की विशिष्ट साधना आर्य महागिरि ने अपने अनेक शिष्यों को आगमों की वाचनाएं देकर उन्हें एकादशांगी का निष्णात विद्वान् बनाया। तदनन्तर उन्होंने अपना गच्छ भी प्रार्य सुहस्ती को संभला दिया और गच्छ की नेश्राय में रहते हुए उच्छिन्न जिन' सुहत्थिस्स सुठ्ठित - सुपडिबुद्धादो प्रावलीते जहा दसासु तहा भारिणतन्वा, इहं तेहिं अहिगारो गत्थि, महागिरिस्स पावलीए अधिकारो।
[नंदी चूणि, पृ० ८ पुण्यविजयजी द्वारा संपादित]
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