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प्रार्य महा० राजवंश] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य महागिरि-सुहस्ती
४४७. अनेक प्राचीन ग्रन्थों में इस प्रकार का उल्लेख उपलब्ध होता है कि जिस समय चन्द्रगुप्त मौर्य पाटलिपुत्र के राज्यसिंहासन पर आसीन हुया उस समय वह जैन धर्मावलम्बी नहीं था। पर चाणक्य ने अनेक युक्तियों से जैन धर्म और जैन श्रमणों की महत्ता सिद्ध कर चन्द्रगुप्त को जैन धर्मावलम्बी बनाया। इसके परिणामस्वरूप आगे चल कर चन्द्रगुप्त जैन धर्म के प्रति प्रगाढ़ आस्था रखने वाला परम श्रद्धालु श्रावक बन गया और उसने जिन-शासन की उल्लेखनीय सेवाएं की।
कहीं कोई षड्यन्त्रकारी धोखे से विष आदि के प्रयोग द्वारा चन्द्रगुप्त की हत्या न कर दे, इस दृष्टि से दूरदर्शी चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को पाटलिपुत्र के राज्यसिंहासन पर आसीन करने के पश्चात् शनैः शनैः भोज्य पदार्थों के साथ प्रति स्वल्प मात्रा में विष खिलाना प्रारम्भ कर दिया था । अनुपात से बढ़ाया गया वह प्राणहारी विष चन्द्रगुप्त के लिये अमृततुल्य परमावश्यक पौष्टिक औषध का काम करने लगा। अनुक्रमशः इस प्रकार चन्द्रगुप्त के प्रतिदिन के भोजन में विष की मात्रा इतनी अधिक बढ़ा दी गई कि यदि चन्द्रगुप्त के लिये बने उस भोजन में से कोई दूसरा व्यक्ति थोड़ा सा अंश भी खा लेता तो उसके लिये वह विषमिश्रित भोजन तत्काल प्राणापहारी सिद्ध हो जाता था।
__ बिन्दुसार का जन्म एक दिन मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त जिस समय भोजन कर रहे थे, उसी समय गभिरणी राजमहिषी वहाँ उपस्थित हुई। महारानी ने चन्द्रगुप्त के साथ भोजन करने की इच्छा अभिव्यक्त की। चन्द्रगुप्त ने ज्यों-ज्यों निषेध किया, त्यों-त्यों राजमहिषी का हठाग्रह बढ़ता ही गया और अन्ततोगत्वा महारानी ने चन्द्रगुप्त के थाल में से थोड़ी सी भोज्य सामग्री झपट कर अपने मुंह में रख ही ली। विषाक्त भोजन ने तत्काल अपना प्रभाव दिखाया और देखते ही देखते महारानी मूद्धित हो पृथ्वी पर गिर पड़ी। तत्क्षण राजप्रासाद में सर्वत्र हाहाकार व्याप्त हो गया। उसी समय महामात्य चाणक्य घटनास्थल पर उपस्थित हुए।
"अब महारानी के प्राण किसी भी उपाय से नहीं बचाये जा सकते"यह कहते हुए चारणक्य ने शल्यचिकित्सिकानों को प्रादेश दिया कि वे यथाशीघ्र महारानी के पेट को चीर कर गर्भस्थ शिशु के प्रारणों की रक्षा करें। तत्काल शल्य क्रिया द्वारा गर्भस्थ शिशु को गर्भ से बाहर निकाल लिया गया। माता द्वारा खाये गये विषाक्त भोजन का बालक पर कोई विशेष प्रभाव नहीं हुआ था, केवल उसके ललाट पर नीले रंग की बिन्दी का चिन्ह ही बन पाया था। विषजन्य बिन्दी के कारण राजकुमार का नाम बिन्दुसार रखा गया।
वीर निर्वाण सं० २१५ से १८ वर्ष तक भारत के बहुत बड़े भूभाग पर शासन करने के पश्चात् मौर्यसाम्राज्य का संस्थापक मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त वीर नि० सं० २३३ में इहलीला समाप्त कर परलोकगामी बना।
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