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प्राचार्य-पद] दशपूर्वधर-काल : आर्य महागिरि-सुहस्ती मुख से प्रार्य महागिरि के लिये कहलवाया है - "ममैते गुरवः खलु" - 'ये मेरे गुरु हैं । ऐसी स्थिति में वीर नि० सं० २१५ में स्वल्प दीक्षाकाल वाले आर्य सुहस्ती को प्राचार्य स्थूलभद्र द्वारा महागिरि के साथ प्राचार्य पद पर नियुक्त किये जाने की बात पूर्ण संगत प्रतीत नहीं होती।
इन सब तथ्यों के संदर्भ में विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि इन दोनों को एक साथ आचार्यपद पर नियुक्त किये जाने के उल्लेख के पीछे कोई न कोई विशिष्ट स्थिति अथवा कारण अबश्य होना चाहिए।
एतद्विषयक सभी तथ्यों के सम्यक् पर्यालोचन से यह अधिक संभव प्रतीत होता है कि प्रार्य महागिरि को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करते समय प्राचार्य स्थूलभद्र ने अपने विशिष्ट ज्ञान से प्रार्य सुहस्ती को शासन संचालन में विशेष कुशल एवं प्रतिभाशाली समझकर आर्य सुहस्ती को कालान्तर में प्राचार्यपद प्रदान करने का उन्हें (महागिरि को) आदेश दिया हो । संभवतः इसी तथ्य को लक्ष्य में रखकर आर्य महागिरि और प्रार्य सुहस्ती - इन दोनों की शिष्य-परम्पराओं का गुरु-परम्परा के रूप में स्थूलभद्रस्वामी के साथ सीधा सम्बन्ध जोड़ने की दृष्टि से इन दोनों को एक साथ प्राचार्य स्थूलभद्र का पट्टधर बताया गया हो।
इसके अतिरिक्त दूसरी स्थिति यह भी हो सकती है कि विशिष्ट श्रुतपर और शिष्यसम्पदा सम्पन्न होने पर भी इन दोनों प्राचार्यों की साधु परम्पराएं वात्सल्य भाव से एक ही व्यवस्था में रही हों और वीर नि० सं० २१५ से २४५ तक जब कि आर्य महागिरि युगप्रधान प्राचार्य रहे, उस काल में भी पीछे चल कर आर्य महागिरि ने वाचना के अतिरिक्त व्यवस्थाकार्य प्रार्य सुहस्ती को संभला रखा हो। संभव है इस कारण से भी आर्य सुहस्ती को आर्य महागिरि के साथ आचार्यपद पर नियुक्त किये जाने का उल्लेख किया गया हो।
जैसा कि पहले बताया जा चुका है, प्रायः सभी ग्रन्थों में प्राचार्य स्थूलभद्र के पश्चात् प्राचार्य महागिरि और आर्य सुहस्ती के आचार्य होने का स्पष्ट उल्लेख मिलता है तथापि यह देख कर बड़ा आश्चर्य होता है कि चूणिकार जिनदास महत्तर ने निशीथ चूरिण में प्रायः सभी प्राचीन ग्रन्थों, पट्टावलियों एवं परम्परागत मान्यता से पूर्णरूपेण भिन्न उल्लेख किया है। चूरिणकार जिनदास महत्तर ने प्रार्य महागिरि और सुहस्ती दोनों को प्राचार्य स्थूलभद्र के युगप्रधान शिष्य एवं प्रार्य महागिरि को ज्येष्ठ मानते हुए भी स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया है कि प्राचार्य स्थूलभद्र ने प्रार्य महागिरि को अपना गण न देकर प्रार्य सुहस्ती को दिया। ऐसा होने पर भी आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ती एक साथ ही विचरण करते रहे।' 'भूलभहस्स जुगप्पहाणा दो सीसा - प्रज्ज महागिरि अज्ज सुहत्थी य । अज्ज महागिरी जेट्ठो।
अज्ज सुहत्थी तस्स सट्ठियरो।। थूलभद्दसामिणा अज्ज सुहत्यिस्स नियमो गणो दिण्णो। तहावि अज्ज महागिरि प्रज्ज सुहत्थी य पीतिवसेरण एक्कयो विहरंति ।
[निशीथ सूत्र भाष्य चूरिण सहित, २ विभाग, उ० ५, पृ० ३६१]
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