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दशपूर्वघर-काल : प्रार्य महागिरि-सुहस्ती
गृहस्थ जीवन आर्य महागिरि और सुहस्ती के माता-पिता कौन थे और कहां के रहने वाले थे, एतद्विषयक कोई उल्लेख जैन साहित्य में उपलब्ध नहीं होता। इन दोनों के दीक्षित होने से पहले के जीवन का केवल इतना ही उल्लेख मिलता है कि इन दोनों को शैशवावस्था से ही प्रार्या यक्षा की देखरेख में रखा गया। इन दोनों का लालन-पालन-शिक्षण प्रादि आर्या यक्षा के तत्वावधान में हुआ । कहा जाता है कि इसी की स्मृति के रूप में इन दोनों के नाम से पहले आर्य विशेषण रखा गया पर यह संगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि "आर्य” इस विशेषण का प्रयोग शास्त्रों में सुधर्मा और जम्बू के लिये भी प्रयुक्त किया गया है । इन दोनों ने क्रमश: ३०. ३० वर्ष की वय में प्राचार्य स्थलभद्र के पास श्रमण-दीक्षा ग्रहण की । आर्य महागिरि का जन्म वीर निर्वाण संवत् १४५ में और प्रार्य सुहस्ती का जन्म वीर निर्वाण संवत् १६१ में हुआ।
अमरण-दीक्षा ऊपर दिये गये इन दोनों प्राचार्यों के जन्म, दीक्षा, प्राचार्यकाल और स्वर्गारोहण के आँकड़ों के अनुसार आर्य महागिरि का दीक्षाकाल वी० नि० सं० १७५ और आर्य सुहस्ती का दीक्षाकाल वी० नि० सं० २२१ माना गया है। दुःषमा श्र० संघस्तोत्रयंत्र के अनुसार इन दोनों प्राचार्यों की पूर्णायु सौ-सौ वर्ष मानी गई है तथा युगप्रधान पट्टावली में प्राचार्य स्थूलभद्र के पश्चात् इन दोनों प्राचार्यो का प्राचार्यकाल क्रमशः ३० और ४६ वर्ष का माना गया है', इससे उपरिवरिणत काल की पुष्टि होती है।
जहां तक आर्य महागिरि का सम्बन्ध है, उपरोक्त कालगणना में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं होती किन्तु ऊपर बताये हुए प्रांकड़ों के अनुसार आर्य सुहस्ती की दीक्षा का काल वी०नि० सं० २२१ में आता है; उसमें सबसे बड़ी आपत्ति यह पाती है कि आर्य सुहस्ती को प्राचार्य स्थूलभद्र का हस्तदीक्षित शिष्य माना गया है और आचार्य स्थूलभद्र वीर नि० सं० २१५ में ही स्वर्गवासी हो गये थे। ऐसी स्थिति में आचार्य स्थूलभद्र के पास वीर नि० सं० २२१ में उनके दीक्षित होने की बात संगत और सत्य नहीं बैठती। प्राचार्य स्थूलभद्र के स्वर्गगमनकाल को १० वर्ष पागे सरका कर इसकी संगति बैठाने का कुछ विद्वानों की ओर से प्रयास किया गया है पर इस प्रकार की पद्धति को अपनाने से तो अनेक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनामों की प्रमाणिकता ही समाप्त हो जायगी। ऐसा प्रतीत होता है कि आर्य सुहस्ती २३ वर्ष की अवस्था में दीक्षित हुए हों
और किसी लिपिकार के प्रमाद से तेवीस के स्थान पर तीस की संख्या प्रचलित हो गई हो । तेवीस वर्ष की अवस्था में इनके दीक्षित होने की बात को स्वीकार कर ' (वीर निर्वाण सं० २१५ में प्रा० स्थूलभद्र के स्वर्गगमन के पश्चाद) अज्ज महागिरि तीसं, मज्ज सुहत्यीण वरिस छायाला ।
[स्थविरावली]
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