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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [श्रमण-दीक्षा लेने से प्राचार्य स्थूलभद्र के पास वी० नि० सं० २१४ -१५ में इनके दीक्षित होने
की संगति भी बैठ जाती है और किसी महान् प्राचार्य के प्रायुष्य को इच्छानुसार .कम या ज्यादा करने का प्रयास भी नहीं करना पड़ता । आर्य सुहस्ती तो शंशवावस्था से ही श्रमणोचित संस्कारों में ढाले गये थे । ऐसी स्थिति में उनकी प्रौपचारिक दीक्षा ७ वर्ष पहले हो अथवा पश्चात्, उससे उनके महान संत जीवन में कोई उल्लेखनीय अंतर नहीं पड़ता।
श्रमण-जीवन वीर निर्वाण सं० १७५ में दीक्षित होने के पश्चात् आर्य महागिरि ने अपने गुरु प्राचार्य स्थूलभद्र की सेवा में रहते हुए दश पूर्वो का ज्ञान प्राप्त किया। ऐसा प्रतीत होता है कि क्रमश: ३० और अनुमानतः २३ वर्ष की अवस्था तक विदुषी आर्या यक्षा के सान्निध्य में रह कर उन दोनों ने निश्चित रूप से एकादशांगी का समीचीनरूपेण अध्ययन कर लिया होगा । तदनन्तर दीक्षित होने के पश्चात् आर्य महागिरि ने याचार्य स्थलभद्र से १० पूर्वो का अध्ययन किया। आर्य सुहस्ती की दीक्षा के पश्चात् प्राचार्य स्थूलभद्र लगभग एक वर्ष तक जीवित रहे, अतः उन्होंने ग्रार्य सुहस्ती को पूर्वो का अध्यापन प्रारम्भ तो कर दिया होगा पर उनके स्वर्गगमन के पश्चात् उन्हें दश पूर्वो का पूर्ण अध्यापन आर्य महागिरि ने ही किया होगा । सम्भवतः यही एक बहुत बड़ा कारण था कि आर्य सुहस्ती ने जीवन पर्यन्त आर्य महागिरि का अपने गुरु की तरह पूर्ण सम्मान किया ।
इन दोनों महापुरुषों ने क्रमशः ४० और ३१ वर्ष के अपने सामान्य व्रतपर्याय के समय में कठोर तपश्चरण, निरतिचार विशुद्ध संयमपालन एवं स्थविर श्रमणों की सेवा शुश्रूषा के साथ-साथ अनवरत अभ्यास और पूर्ण निष्ठा के साथ ज्ञानार्जन किया। ये दोनों महाश्रमण दो वस्तु कम १० पूर्वो के पूर्ण ज्ञाता थे।
प्राचार्य-पद वीर निर्वाण संवत् २१५ में अपने स्वर्गगमन के समय प्राचार्य स्थूलभद्र ने अपने इन दोनों सुयोग्य शिष्यों-आर्य महागिरि और आर्य सहस्ती- को अपने उत्तराधिकारी के रूप में भगवान् महावीर के आठवें पट्टधर-पद पर प्राचार्य नियुक्त किया।
प्रायः कल्पसूत्र स्थविरावळी, परिशिष्ट पर्व, विभिन्न पट्टावलियां मादि सभी उपलब्ध प्राचीन एवं अर्वाचीन ग्रन्थों में प्राचार्य स्थूलभद्र द्वारा प्रार्य महागिरि और सुहस्ती - इन दोनों को साथ-साथ आचार्य पद प्रदान किये जाने का उल्लेख किया गया है। पर यह वस्तुतः विचारणीय है। इसका कारण यह है कि आर्य सुहस्ती प्राचार्य स्थूलभद्र के पास दीक्षित होकर संभवतः एकादशांगी का अभ्यास भी पूर्ण नहीं कर पायें होंगे कि स्थूलभद्र स्वामी स्वर्गस्थ हो गये। प्रार्य सुहस्ती का पूर्व श्रुत का अभ्यास आर्य महागिरि के सानिध्य में उन्हीं की कृपा से पूर्ण हुआ, जैसा कि परिशिष्ट पर्वकार ने स्वयं प्रार्य सुहस्ती. के
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