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चन्द्रगुप्त का परिचय दशपूर्वधर-काल : आर्य स्थूलभद्र
४२७ चाणक्य उस वालक के उत्तर को सुन कर बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने बड़े ध्यान में बात के शारीरिक लक्षणों को और प्राकृति को देखा तो उसे ऐसा अनुभव हा कि वह बालक वस्तुतः राजा बनाये जाने के योग्य है । बालक के दृढ़ ग्रात्मविश्वास और सहज निर्भय स्वभाव से चाणक्य वड़ा प्रभावित हुप्रा । उसके कुल-शील और माता-पिता के सम्बन्ध में परिचय प्राप्त करने की इच्छा से चाणक्य ने एक बालक से पूछा- “यह बालक-राजा किसका पुत्र है ?"
अनेक वालकों ने एक साथ उत्तर दिया - "महाराज ! यह एक संन्यासीजी महाराज का दत्तक पुत्र है । इसका नाम चन्द्रगुप्त है। जिस समय यह गर्भ में था उस समय इसकी माता को यह तीव्र चाह हुई कि वह चन्द्रमा को पी जाये। उसकी चाह पूरी न होने के कारण माता और गर्भ दोनों ही दिन-प्रतिदिन क्षीरण होते चले गये। इसके नाना ने अपना दुःख उन संन्यासीजी महाराज के समक्ष प्रकट किया। संन्यासीजी ने इस शर्त पर इसकी माता की चन्द्रपान की इच्छा पूर्ण करने का विश्वास दिलाया कि जिस पुत्र को यह जन्म दे उसे बड़ा होने पर उन्हें दे दिया जाय । इसके नाना ने संन्यासीजी की वह शर्त स्वीकार कर ली
और उन महात्मा ने इसकी माता को न मालुम किस विद्या के प्रभाव से चांद पिला ही दिया। इसकी माता की चन्द्रमा को पीने की इच्छा पूर्ण होने से वह पूरी तरह स्वस्थ हो गई और उसने समय पर इस बालक को जन्म दिया। इसकी माता द्वारा चन्द्रमा के पिये जाने के कारण इस बालक की रक्षा हुई इसलिये इसके नाना-नानी ने इसका नाम चन्द्रगुप्त रखा। "महाराज ! यह बड़ा बहादुर तथा बहुत ही अच्छा लड़का है पर क्या करें एक न एक दिन वे संन्यासीजी महाराज पायेंगे और इसको अपने साथ ले जायेंगे। हमारा यह प्यारा और अच्छा राजा एक दिन हम लोगों को छोड़ कर चला जायगा इस बात का हमें बड़ा दुःख है।"
___ चाणक्य ने चन्द्रगुप्त के मुख और मस्तक पर दुलार से हाथ फेरते हुए कहा- “मेरे बच्चे !” मैं ही तो वह सन्यासी हूं। मेरे साथ चलो, मैं तुम्हें राजा बना दूंगा।"
महत्वाकांक्षी बालक चन्द्रगुप्त ने तत्काल चाणक्य के वामहस्त की कनिष्ठिका पकड़ ली और वह पाशा के अनन्त नीलगगन में अपने भावी साम्राज्य के सुन्दर-सुनहले चित्र बनाता हुआ चारणक्य के साथ हो लिया। अब तो वह राजा बन कर ही अपने नाना-नानी, माता-पिता और बाल-सखायों से मिलेगा इस प्रकार का मन ही मन दृढ़ निश्चय कर चुकने के कारण बालक चन्द्रगुप्त में अपने साथी बालकों और अपने ग्राम की ओर मुड़ कर भी नहीं देखा । अपने स्वप्नों को माकार करने वाले उस स्वरिणम सुयोग में कहीं किसी प्रकार का विघ्न उपस्थित नहीं हो जाय, इस आशंका से चाणक्य ने बालक के माता-पिता मादि अभिभावकों को बिना पूछे ही उस गांव से अनिश्चित स्थान के लिये तत्काल प्रस्थान कर दिगा।
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