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मौर्य रा० का सं० चाणक्य] दशपूर्वघर-काल : पायं स्थूलभद्र
४२५ स्वर में यह प्रतिज्ञा की - "मैं इस नन्द का इसके सैन्य, पुत्र, मित्र और कोश के साथ सर्वनाश करके ही विश्राम लूंगा।" ___ उपर्युक्त कठोर प्रतिज्ञा करने के पश्चात् भ्रूविक्षेप और लाल-लाल मांखों से नन्द की पोर दृष्टिनिक्षेप करते हुए मारे क्रोध के कांपता हुप्रा चाणक्य राजप्रासाद से निकल कर नगर से बाहर चला गया। चाणक्य को अपने माता-पिता से सुनी हुई स्थविरों की उस भविष्यवाणी का स्मरण हो पाया जिसमें उन्होंने कहा था कि यह आगे चलकर सम्राट नहीं पर सम्राट् के समान "बिम्बान्तरित"यवनिका के पीछे रहते हुए, सम्राट् बनेगा। 'निस्पृह श्रमरणश्रेष्ठ द्वारा कही गई बात कभी असत्य नहीं होती' यह विचार कर चाणक्य ने राजा बनने योग्य किसी व्यक्ति को दंढ कर उसके माध्यम से नन्द, उसके वंश और राज्य का नाश करने का दृढ़ संकल्प कर लिया।
चन्द्रगुप्त का परिचय किसी सुयोग्य व्यक्ति की तलाश में सन्यासी का वेष धारण किये हुए घूमता हुग्रा चाणक्य एक दिन एक ऐसे ग्राम में भिक्षार्थ पहुंचा, जहां राजा नन्द के मयूरों का पालन-पोषण करने वाले लोग निवास करते थे। मयूरपोषकों के मुखिया ने परिव्राजक वेषधारी चाणक्य को देख कर कहा- "महात्मन् ! मेरी पुत्री को चन्द्रपान का एक बड़ा ही प्रभुद दोहद उत्पन्न हुमा है। उसको चन्द्रमा के पीने की प्रत्युत्कट अभिलाषा बनी हुई है। इस प्रसंभव कृत्य को कैसे किया जा सकता है ? गभिरणी के दोहद की पूर्ति न होने की दशा में गर्भस्थ शिशु के साथ-साथ मेरी पुत्री का प्राणान्त होना भी अवश्यम्भावी है, यह चिन्ता मुझे महर्निश पीड़ित कर रही है। यदि माप इस अद्भुत दोहद की पूर्ति का कोई उपाय कर सकें तो हम पर बड़ा उपकार होगा।"
विद्वान् चाणक्य ने समझ लिया कि जिस सुयोग्य पात्र की खोज में वह प्रयत्नशील है, वह पात्र तो मयूरपोषक की पुत्री के गर्भ में है। चाणक्य ने मयूरपोषकों के मुखिया से कहा - "गर्भस्थ बालक को बड़ा होने पर यदि तुम मुझे दे देने की प्रतिज्ञा करो तो मैं तुम्हारी पुत्री के दोहद की पूर्ति कर सकता हूं।"
मयूरपोषकों के स्वामी ने चाणक्य की शर्त को सहर्ष स्वीकार कर लिया। तदनन्तर बुद्धिमान चाणक्य ने घास-फूस की एक झोंपड़ी तैयार करवाई। उस झोंपड़ी के ऊपरी भाग में एक बड़ा-सा छिद्र रखवाया। उस झोपड़ी में रात्रिके समय खिद्र में से पूर्णचन्द्र का प्रतिबिम्ब पड़ने लगा। चाणक्य ने गुप्तरूप से एक पादमी को झोंपड़ी पर यह कह कर बढ़ा दिया कि उसके संकेत करते ही वह धीरे-धीरे उस छिद्र को तृणों से ढंकना प्रारम्भ कर दे।
यह सब व्यवस्था करने के पश्चात् चाणक्य ने गभिणी को बुलाकर उस झोपड़ी में एक पीड़े पर बैठाया और उसके हाथ में पानी से भरी हुई एक पाली
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