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१२४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मौर्य रा० का सं० चाणक्य से सुशोभित और दासिवृन्दों से सदा परिवृत्त रहती थीं। चाणक्य की पत्नी के पास प्राभूषण के नाम पर कुछ भी नहीं था। वह रातदिन एक ही पुरानी साड़ी एवं कंचुकी पहने रहती थी। उसकी इस दरिद्रावस्था को देख कर उसकी लक्ष्मी के समान वैभवशालिनी बहनों तथा विवाहोत्सव में सम्मिलित हुई अन्य प्रायः सभी स्त्रियों ने विविध व्यंगोक्तियों से बड़ी हँसी उड़ाना प्रारम्भ कर दिया। स्वाभिमानिनी चाणक्यपत्नी मारे लज्जा के ग्रह के एकान्त कक्ष के एक कोने में सबकी निगाहों से अपने प्रापको छुपाये हुए बैठी रहती। विवाह के उस मांगलिक महोत्सव में उसने लज्जावश कोई भाग नहीं लिया और विवाह के सम्पन्न होतें ही वह अपने पतिगृह को लौट आई। दरिद्रता के कारण हुए अपने अपमान का उसे इतना गहरा दुःख हुमा कि वह अपने पतिग्रह में आकर रात भर रोती रही। चाणक्य को अपनी पत्नी की प्रांखों में प्रांसू देख कर बड़ा दुःख हुआ। चाणक्य ने अपनी पत्नी से उसके शोक का कारण जानना चाहा । अनेक बार आग्रहपूर्वक पूछने पर नहीं चाहते हुए भी पत्नी को अपने पति के सम्मुख प्रपनी अन्तर्वेदना को प्रकट करना ही पड़ा। चारणक्य को जब यह विदित हुप्रा कि उसकी दारिद्रधावस्था के कारण उसकी पत्नी का परिहास हुआ है, तो उसने धन उपार्जित करने का दृढ़ संकल्प किया। उसे यह विदित ही था कि मगधपति नन्द ब्राह्मणों को दक्षिणा के रूप में पर्याप्त धन देता है प्रतः वह धन-प्राप्ति की मांशा लिये पाटलिपुत्र पहुंचा। अन्य दक्षिणार्थियों के प्रागमन से पूर्व ही राजप्रासाद में प्रवेश कर चारणक्य सबसे प्रागे रखे हुए एक उच्चासन पर बैठ गया। वस्तुतः नन्द सदा उस प्रासन पर बैठ कर ही दक्षिणाएं दिया करता था। नन्द के साथ पाये हुए नन्द के पुत्र ने तिरस्कारपूर्ण स्वर में एक दासी से कहा- "देखना इस ब्राह्मण की धृष्टता कि यह मगधमम्राट् के ग्रामन पर पा कर बैठ गया है।" - दामी ने चाणक्य के पास पहुंच कर शान्त स्वर में कहा - "ब्रह्मन! प्राप इस दूसरे प्रामन पर बैठ जाइये।"
_ "इस पर तो मेरा कमण्डलु रहेगा"-यह कहते हुए चाणक्य ने दूसरे प्रासन पर अपना कमण्डलु रख दिया।
दासी ने क्रमशः तीसरे, चौथे और पांचवें प्रासन पर बैठने की चाणक्य से .प्रार्थना की पर चाणक्य ने उन तीनों प्रासनों पर क्रमशः प्रपना दण्ड, जपमाला
और यज्ञोपवीत रखते हुए कहा इस पर मेरा दण्ड, इस प्रासन पर मेरी जपमाला, और इस पर मेरा यज्ञोपवीत रहेगा।
चाणक्य के न उठने एवं प्रन्यान्य प्रासनों को रोकते रहने से क्षुब्ध हो, यह कहते हुए कि कितना धृष्ठ है यह ब्राह्मण जो बार-बार कहने पर भी प्रासन से उठता नहीं है और दूसरे मासनों को रोकता ही चला जा रहा है, दासी ने पाणिप्रहार कर चाणक्य को उस मासन से उठा दिया ।
दासी द्वारा किये गये इस अपमान से चागक्य की क्रोधाग्नि प्रवल वेग से भड़क उठी। उसने उपस्थित विशाल जनसमूह के समक्ष दृढ़ और प्रत्युच्च
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