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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ चन्द्रगुप्त का परिचय
रख दी । उस थाली में पूर्णचन्द्र का प्रतिबिम्ब पड़ रहा था । चारणक्य ने गर्भिणी को सम्बोधित करते हुए कहा- "बेटी ! इस चन्द्रमा को पी जाओ ।"
गर्भिणी ने थाली का पानी पीना प्रारम्भ किया । ज्यों-ज्यों वह पानी पीती जा रही थी त्यों-त्यों झोंपड़ी के ऊपर बैठा हुआ पुरुष झोंपड़ी में रखे हुए छेद को तृणों से ढांपता जा रहा था । इस प्रकार थाली का पूरा पानी पी लेने पर गर्भिणी को चन्द्र दिखना बन्द हो गया और उसके यह समझ लेने पर कि उसने चन्द्रपान कर लिया है, उसका दोहद पूर्ण हो गया । दोहद की पूर्ति हो जाने पर गर्भ निर्विघ्न रूप से बढ़ने लगा और समय पर मयूरपोषक की पुत्री ने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया । दोहद की बात को ध्यान में रखते हुए उस बालक का नाम चन्द्रगुप्त रखा गया ।
धुन
दूरदर्शी चाणक्य भावी राजा की सेना के लिये स्वर्ण एकत्रित करने की धातु - विशारदों की खोज करता हुआ इधर-उधर घूमने लगा ।
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इधर कुछ बड़ा होने पर बालक चन्द्रगुप्त अपने समवयस्क बालकों के साथ खेलते समय राजाओं जैसी चेष्टाएं करने लगा । वह कभी किसी बालक को हाथी बनाकर उस पर बैठता, तो कभी दूसरे बालक को घोड़ा बनाकर उस पर सवार होता । वह खेल ही खेल में मिट्टी के घरोंदे बनाकर उन्हें गांव की संज्ञा देता और हाथी बनाये हुए किसी बालक पर बैठकर अपने साथियों की सेना ले उस गांव पर प्राक्रमरण करता । वह उन कृत्रिम गांवों को जीत कर बड़े आनन्द का अनुभव करता । वह अपने साथी बालकों को अनेक प्रकार की प्रज्ञाएं देता और वे बालक स्वामिभक्त सेवक की तरह चन्द्रगुप्त की प्राज्ञानों का पालन करते ।
अनेक स्थानों पर घूमता हुआ चारणक्य एक दिन मयूरपोषकों के उस गांव में पहुंचा। उस समय चन्द्रगुप्त बालकों के साथ क्रीड़ा करते हुए अनेक प्रकार की राज- लीलाएं कर रहा था । चारणध्य उस तेजस्वी बालक की राजसीला देखकर मन ही मन बड़ा प्रसन्न हुआ । बालक की बुद्धि और बहादुरी की परीक्षा करने की दृष्टि से चाणक्य ने उससे कहा- "महाराज ! मुझे भी प्राप कुछ दान दीजिये ।"
बालक चन्द्रगुप्त ने तत्काल उत्तर दिया - " गांव की ये इतनी गायें हैं उनमें से छांट-छांट कर आपको जो-जो अच्छी लगें, वे सब मैंने आपको दीं, आप उन्हें ले जाइये ।"
चाणक्य ने हँसते हुए उत्तर दिया- "राजन् ! इन श्रौरों की गायों को मैं कैसे ले जाऊं, इनके स्वामी मुझे मारेंगे नहीं ?"
वालक चन्द्रगुप्त ने भी दृढ़ता के साथ कहा - "ब्रह्मदेव ! आपको किसी से डरने की आवश्यकता नहीं । मैंने ये गायें आपको दे दी हैं, मैं राजा हूं, मेरी आज्ञा का कोई उल्लंघन नहीं कर सकता । क्या आपको ज्ञात नहीं है कि "वीरभोग्या वसंघरा", यह पृथ्वी वीर पुरुषों के ही उपभोग की वस्तु है ।
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