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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मौयवंश का अभ्युदय चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को बीच में ही टोकते हुए कहा - "नहीं, नहीं चन्द्रगुप्त ! ऐसा न करो। तुम निस्संकोच होकर राजकुमारी को अपने रथ में बैठने दो। रथ के पहिये के दारों के टूटने का यह तुम्हारे लिये और तुम्हारी भावी पीढ़ियों के लिये महान् शुभ शकुन है। तुम्हारी ६ पीढ़ियां अक्षुण्णरूप से राज्य करती रहेंगी।"
___ "यथाज्ञापयति देव !" कहते हए चन्द्रगुप्त ने चाणक्य की आज्ञा को शिरोधार्य किया और धननन्द की राजपुत्री को अपने रथ में बिठा लिया।
तदनन्तर चन्द्रगुप्त और राजा पर्वतक ने धननन्द की अतुल धन-सम्पत्ति का परस्पर विभाजन करना प्रारम्भ किया।
___ धननन्द की सम्पत्ति का बंटवारा करते समय धननन्द के रनिवास की एक अद्भुत रूप-लावण्यसम्पन्न कन्या चन्द्रगुप्त और पर्वतक के समक्ष प्रस्तुत की गई। राजा पर्वतक उस कन्या को देखते ही उस पर मुग्ध हो गया। वह कन्यारत्न किसके पास रहे, इस प्रकार का प्रश्न उठने से पहले ही दूरदर्शी चाणक्य ने कहा - "चन्द्रगुप्त ! धननन्द की राजपुत्री तुम्हारा वरण कर चुकी है, अब यह अनुपम सुन्दरी कन्या महाराज पर्वतक की पत्नी बने, यही न्यायसंगत है।"
चन्द्रगुप्त ने बिना किसी प्रकार की नन्नो-नच्च के अपने गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य कर लिया। महाध्य वस्तुओं का बंटवारा होते ही पर्वतक की इच्छानुसार उस रूपवती कन्या के साथ पर्वतक का विवाह बड़ी धूमधाम के साथ सम्पन्न किया जाने लगा । सुन्दर वस्त्राभूषणों से सुसज्जित वर-वधू को हवन-वेदी के पास बिठाया गया और वर-वधू का परस्पर करग्रहण करवाने के पश्चात् विवाह की मांगलिक क्रियाएं की जाने लगीं। विवाह-वेदी की अग्नि के ताप से वर-तधू के हाथों में स्वेद उत्पन्न हुआ । वधू के हाथ का स्वेद लगते ही पर्वतक पर अति वेग से विष का प्रभाव होने लगा। वस्तुतः वह कन्या विषकन्या थी, जिसे धननन्द ने अपनी राह के कांटों को गुप्त रूप से साफ करने हेतु अनुपात से उत्तरोत्तर अधिकाधिक विष खिला कर पाला-पोसा था। उस विषकन्या के स्वेद के प्रभाव से पर्वतक के समस्त अंगोपांग शिथिल होने लगे। उसके अन्तर में विषजन्य तीव्र जलन होने लगी। उसने करुणापूर्ण याचनाभरे स्वर में चन्द्रगुप्त को सम्बोधित करते हुए कहा - "मित्र ! मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो मुझे विष पिला दिया गया हो । मेरे कण्ठ अवरुद्ध हो रहे हैं । अब मुझ में बोलने का भी साहस नहीं रहा है । मेरे प्राण निकलने ही वाले हैं । कृपा कर मेरा शीघ्रतापूर्वक कुशल वैद्यों से उपचार करवायो।"
चन्द्रगुप्त को सहसा ऐसा अनुभव हुआ मानो उस पर अनभ्र-वज्रपात हुप्रा हो । वह हड़बड़ा कर अपने स्थान से उठा और - "कहां हैं मान्त्रिक ! कहां हैं वैद्य !" कहता हुआ स्वयं द्वार की ओर भागा। चाणक्य ने इस प्रकार हड़बड़ा
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