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• जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग
मित्रं धर्मेण योजयेत् प्राचार्य स्थूलभद्र अनेक क्षेत्रों के भव्यों का उद्धार करते हुए विहारानुक्रम से एक दिन श्रावस्ती पधारे । दर्शन-वन्दन-उपदेशश्रवण की उमंगों से उद्वेलित जनसमुद्र आचार्यश्री की सेवा में उमड़ पड़ा। समस्त संसार के प्राणियों की कल्याणकामना करने वाले प्राचार्य भद्रबाहु के भवरोग निवारक भावपूर्ण उपदेशामृत का पान कर श्रावस्ती के आबालवृद्ध नागरिकों ने परमानन्द का अनुभव करते हुए सच्चे धर्म का स्वरूप समझा।
देशनानन्तर श्रोताओं में अपने बालसखा धनदेव को न देख कर प्राचार्य स्थूलभद्र ने विचार किया कि श्रावस्ती के प्रायः सभी श्रद्धालु जन वहां आये हैं पर धनदेव नहीं पाया। हो सकता है वह कहीं अन्यत्र गया हया हो अथवा रुग्ण हो। उसके न आने के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य है अन्यथा वह उनका नाम सुनते ही अवश्य उपस्थित होता। ऐसी दशा में उन्हें स्वयं उसके घर जा कर देखना चाहिये कि आत्मकल्याणं की ओर भी उसका ध्यान है अथवा नहीं।
इस प्रकार विचार कर आचार्य स्थूलभद्र धनदेव पर विशेष अनुग्रह कर मार्ग में साथ हुए जनसमूह सहित उसके घर पहुंचे । धनदेव की पत्नी कल्पवृक्ष के समान महान् प्राचार्य को अपने घर के प्रांगण में देख कर हर्षविभोर हो उठी। उसने भक्तिपूर्वक प्राचार्यश्री को वन्दन किया और एक काष्टासन प्रस्तुत करते हुए उस पर विराजमान होने की उनसे प्रार्थना की।
आसन पर बैठने के पश्चात् प्राचार्य स्थूलभद्र ने धनदेव की पत्नी से धनदेव के सम्बन्ध में पूछा कि क्या वह कहीं बाहर गया हुआ है ?
धनदेव की पत्नी ने उत्तर दिया- "भगवन् ! वे अपनी समस्त सम्पत्ति का व्यय कर चुकने के पश्चात् दैन्य के दारुण दुःख से पीड़ित हो अर्थोपार्जन हेतु देशान्तर में गये हुए हैं।"
अपने बालसखा की दैन्यावस्था पर विचार करते हुए स्थलभद्र ने अपने ज्ञानबल से देखा कि धनदेव के घर में एक स्तम्भ के नीचे अपार निधि रखी हुई है। उन्होंने उस स्तम्भ की ओर देखते हुए धनदेव की गृहिणी से कहा - "श्राविके ! देख, संसार का वास्तविक स्वरूप यही है। कितनी विपुल सम्पत्ति थी तुम्हारे घर में, कितना बड़ा व्यवसाय था धनदेव का और आज यह दशा हो गई है।"
तदनन्तर थोड़े समय तक सारभूत धर्मोपदेश दे कर प्राचार्य स्थूलभद्र अपने स्थान की ओर लौट गये और दूसरे दिन वहां से विहार कर धर्म का दिव्य सन्देश जन-जन तक पहुंचाते हुए अनेक क्षेत्रों में विचरण करने लगे।
धनदेव को बहुत कुछ प्रयास करने पर भी अर्थप्राप्ति नहीं हुई और जिस दशा में, जिन वस्त्रों को पहने हुए वह घर से निकला था, उसी दशा में और उन्हीं वस्त्रों को धारण किये हुए कुछ दिनों पश्चात् वह पुनः अपने घर लौटा । अपनी
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