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तृतीय निन्हव की उत्पत्ति] दशपूर्वधर-काल : प्रायं स्थूलभद्र
४१७ राजा बलभद्र को जब यह विदित हा कि अव्यक्तवादी निन्हव राजगृह नगर के वाहर गुरणशील उद्यान में पाये हुए है तो उसने अपने सेवकों को भेजकर साधुओं को ग्रामन्त्रित किया और उनको हाथियों द्वारा कटक-मर्दन से मारने की आज्ञा दी। जब साधुनों का मर्दन करने हेतु हाथी पास में लाये गये तो उन निन्हवों ने राजा से पूछा - "राजन् ! हम तो जानते हैं कि तुम श्रावक हो, तब फिर तुम हम श्रमरणों की हिंसा क्यों कर रहे हो?"
राजा ने कहा- "महाराज! प्रापके सिद्धान्तानुसार कौन जानता है कि मैं श्रावक हूं, अथवा नहीं। तुम सब भी चोर, गुप्तचर हत्यारे हो या साधु हो यह कोई नहीं जानता।"
साधुओं ने कहा - "हम साधु हैं।"
राजा ने कहा- "यदि ऐसा निश्चित है तो अव्यक्तवादी होकर परस्पर बड़ों को वन्दनादि क्यों नहीं करते ?" वर्षों से साथ-साथ रहने वाले पाप लोगों को परस्पर एक-दूसरे पर यदि भरोसा नहीं है तो मुझे पाप लोगों पर किस प्रकार विश्वास हो सकता है ?"
राजा की युक्तिसंगत बात सुनकर वे बड़े लज्जित हुए और उन निन्हव साधुनों की शंका का पूर्णतः समाधान हो गया। उन्होंने अव्यक्तवाद का परित्याग कर दिया और गुरू-चरणों में जाकर उन्होंने पूर्ववत् वन्दनादि करना प्रारम्भ कर दिया।
आर्य स्थूलभद्र ३० वर्ष तक गृहस्थ-पर्याय में रहे। वीर निर्वाण संवत् १४६ में आपने आर्य संभूतिविजय. के पास दीक्षा ग्रहण की। २४ वर्ष तक सामान्य साधु पर्याय में रहे। वीर नि० सं० १७० से २१५ तक आपने प्राचार्यपद पर रहते हुए वीरशासन की सेवाएं की। अन्त में ९६ वर्ष की प्रायूष्य पूर्ण कर वीर निर्वाण सं० २१५ में राजगह नगर के समीप वैभारगिरि पर १५ दिन के अनशन व संथारे के बाद आपने स्वर्गगमन किया।
जैसा कि आगे बताया जायगा, भारतीय इतिहास की दृष्टि से मार्य स्शुलभद्र का यूग राज्य-परिवर्तन अथवा राज्य-विप्लव का युग रहा। भारत पर यूनानियों का आक्रमण, महान् राजनीतिज्ञ चाणक्य का अभ्युदय, नन्दराज्य का पतन और मौर्य-राज्य का उदय - ये उनके काल की प्रमुख राजनैतिक घटनाएं हैं।
प्रार्य स्थूलभद्र के प्रारम्भिक जीवन-वृत्त से यह भी भलीभांति प्रकट होता है कि उन दिनों की राजनीति में जैनों का कितना व्यापक प्रभाव रहा। यह इसी से स्पष्ट है कि शकडाल और श्रीयक आदि नन्द-साम्राज्य के परम राजभक्त महामात्य रहे।
तात्कालिक जनजीवन का भी एक स्पष्ट चित्र आर्य स्थूलभद्र के समय के घटनाक्रम के चित्रणं में उभर पाता है। अहिंसा-संयम और तपोमय जीवन द्वारा श्रमरण-संस्कृति के सिद्धान्त उस समय के प्रजाजीवन में साकार थे।
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