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मित्रं धर्मेण योजयेत् ]
दशपूर्वधर - काल : आर्य स्थूलभद्र
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पत्नी के
मुख
से प्राचार्य स्थूलभद्र के आगमन का समाचार सुन कर उसने उससे पूछा - "क्या प्राचार्यदेव ने तुम्हें कुछ कहा था ?"
धनदेव की पत्नी ने उत्तर दिया- “संसार की विचित्र गति और धर्मोपदेश के अतिरिक्त उन्होंने कोई विशेष बात तो नहीं कही पर वे बार-बार अपने घर के इस स्तम्भ की ओर देख रहे थे । "
धनदेव समझ गया कि महापुरुषों की कोई भी चेष्टा निरर्थक नहीं होती । उन ज्ञानी महात्मा की दृष्टि इस स्तम्भ पर अटकी तो निश्चित रूप से इसके नीचे विपुल धन होना चाहिये । इस प्रकार विचार कर धनदेव ने उस स्तम्भ के आसपास की भूमि को खोदना प्रारम्भ किया। थोड़े से परिश्रम के पश्चात् ही धनदेव ने देखा कि उस थम्भे के नीचे अपार सम्पत्ति गडी पड़ी है । धनदेव ने भूमि में दबी पड़ी उस सम्पत्ति को निकाला और पुनः कुबेर के समान सम्पत्तिशाली श्रीमन्तों में उसकी गणना होने लगीं ।
धनदेव को ज्यों ही विदित हुआ कि आचार्य स्थूलभद्र पाटलिपुत्र में विराजमान हैं, तो वह उनकी सेवा में पाटलिपुत्र पहुंचा । श्राचार्यश्री और समस्त मुनिवृन्द को भक्ति सहित वन्दन नमन करने के पश्चात् धनदेव ने प्राचार्यश्री की सेवा में निवेदन किया- “भगवन् ! मेरी अनुपस्थिति में मेरे घर में आपके पावन पदार्परम एवं कृपा-कटाक्षनिक्षेप से मेरा दारिद्र्य दुःख दूर हुआ । प्राप ही मेरे स्वामी, गुरु और सर्वस्व हैं । कृपा कर प्रदेश दीजिये कि में क्या सेवा करू ?"
आचार्य स्थूलभद्र ने कहा- “धनदेव ! भगवान् जिनेन्द्र द्वारा प्ररूपित धर्म ही अक्षय एवं अव्यावाध सुख का देने वाला है अतः तुम अन्तर्मन से उसका यथाशक्ति पालन करो | बस तुम्हारे लिये सबसे बड़ा और परमावश्यक यही कार्य है ।"
आचार्य स्थूलभद्र की आज्ञा को शिरोधार्य कर धनदेव भगवान् जिनेन्द्रदेव द्वारा प्ररूपित दया-धर्म का व्रतधारी श्रद्धालु उपासक बना और कतिपय दिनों तक आर्य स्थूलभद्र की सेवा में रह कर अपने घर लौट गया ।
इस प्रकार प्राणिमात्र का कल्याण चाहने वाले करुणासागर प्राचार्य स्थूलभद्र ने अपने बालवय के मित्र धनदेव को सच्चे धर्म का अनुयायी और उपासक बना कर उसे भवभ्रमरण से बचने का प्रशस्त मार्ग बताया ।
तृतीय निन्हव प्रव्यक्तवादी की उत्पत्ति (वीर निर्वाण संवत् २१४)
आचार्य स्थूलभद्र के आचार्यत्वकाल के ४४ वर्ष बीत जाने पर वीर निर्वारण संवत् २१४ में श्वेताम्बिका नगरी में प्राषाढ़ाचार्य के शिष्यों से तीसरे निन्हवअव्यक्तवादी की उत्पत्ति हुई । उसका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है :
एक दिन श्वेताम्बिका नगरी में आर्य आषाढ़ नामक प्राचार्य प्रपने अनेक शिष्यों के साथ पउलाषाढ़ नामक चैत्य में विराज रहे थे । वे अपने शिष्य समुदाय को वाचना प्रदान कर रहे थे। संयोगवश वाचनाकाल में ही प्राषाढ़ाचार्य एक
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