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एक विकट समस्या] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य स्थूलभद्र चार पूर्व विनष्ट हो गये । इस अपयश की कल्पनामात्र से मैं सिहर उठता हूं अतः आप मुझे भले ही शेष पूर्वो का अर्थ और विशिष्ट विवेचन न बताइये पर मूल रूप से तो उनकी वाचना मुझे देने की कृपा करिये।"
चतुर्दशपूर्वधर आचार्य भद्रबाहु ने यह निश्चित तौर पर समझ लिया था कि सम्पूर्ण चतुर्दश पूर्वो के ज्ञान में से अंतिम चार पूर्वो का ज्ञान उनकी आय की समाप्ति के साथ ही विछिन्न हो जायगा; उन्होंने प्रार्य स्थूलभद्र को अंतिम चार पूर्वो की मूल मात्र वाचनाएं दीं।
वीर निर्वाण संवत् १७० में, तदनुसार ईसा से ३५७ वर्ष पूर्व प्राचार्य भद्रबाहु के स्वर्गारोहण के पश्चात् आर्य स्थूलभद्र भगवान् महावीर के आठवें पट्टधर आचार्य बने।
श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं का इस विषय में मतैक्य है कि प्राचार्य भद्रबाह भगवान् महावीर के शासन में अन्तिम चतुर्दश पूर्वधर अथवा श्रुतकेवली हुए।'
आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने स्थूलभद्र को भी चतुर्दशपूर्वधर माना है। उनके अनुसार भद्रबाहु ने इस आदेश के साथ शेष पूर्वो का ज्ञान दिया कि अन्य किसी को इन पूर्वो का ज्ञान नहीं दिया जाय । जैसा कि उन्होंने परिशिष्ट पर्व में लिखा है :
स संघेनाग्रहादुक्तो, विवेदेत्युपयोगतः । न मत्तः शेषपूर्वाणामुच्छेदो भाव्यतस्तु सः ।।१०६।। अन्यस्य शेषपूर्वारिग प्रदेयानि त्वया न हि । इत्यभिग्राह्य भगवान् स्थूलभद्रमवाचयत् ॥११०॥ सर्वपूर्वधरोऽथासीत् स्थूलभद्रो महामुनिः ॥१११।।
कल्प किरणावली में भी प्राचार्य स्थूलभद्र को चौदह पूर्वधर माना है । यहां अन्तिम चार पूर्वो की मूल वाचना प्राचार्य भद्रबाहु ने आर्य स्थूलभद्र को दी थी इसी दृष्टि से उन्हें चतुर्दश पूर्वधर मान लिया गया है । वस्तुतः आर्य स्थूलभद्र दो वस्तु कम १० पूर्वो के ही पूर्ण रूप से ज्ञाता थे। अन्तिम चार पूर्वो का तो उन्हें विना अर्थ के मूल पाठ ही पढ़ाया गया था।
संघाधिनायक बनने के पश्चात् प्राचार्य स्थूलभद्र ने विभिन्न क्षेत्रों में विहार कर ४५ वर्ष तक अनेक भव्यों का उद्धार करते हुए जिनशासन की उल्लेखनीय सेवा की। १ पढमो दसपुग्वीणं, सगडालकुलस्स जसकरो धीरो । नामेण थूलभद्दो, प्रवहिं साधम्मभद्दो ति ||७||
[तित्योगालीपइन्ना] (ख) सिरिगोदमेण दिण्णं सुहम्मरणाहस्स तेण जंबुस्स।
विण्ह रणदीमित्तो तत्तो य पराजिदो य तत्तो ।।४३।। गोवद्धणो य तत्तो भद्दभुप्रो अंतकेवली कहियो।
[अंगपण्णत्ती (दिगम्बरमान्यता का ग्रन्थ)]
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