________________
एक विकट समस्या ]
दशपूर्वघर - काल : प्रायं स्थूलभद्र
४११
तुमने अपनी बहनों के समक्ष अपनी गुरुता और अपनी विद्या का चमत्कार प्रकट कर ही दिया । ऐसी दशा में तुम अब आगे के पूर्वो की वाचना के योग्य पात्र नहीं हो । जितना तुमने प्राप्त कर लिया है, उसी में सन्तोष करो । यह याद रखो, साधना के प्रति विकट पथ पर विचरण करने वाला केवल वही साधक अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होता है, जो पूर्णरूपेण स्व को विस्मृत कर देता है । प्रदर्शन स्व की विस्मृति नहीं अपितु स्व की ओर आकर्षण है । साधक को एक क्षण के लिये भी यह नहीं भूलना चाहिये कि आत्मानन्द की अवाप्ति ही उसका एकमात्र ध्येय है । आत्मानन्द की अनुभूति के समक्ष अष्ट सिद्धि, नवनिधि तुल्य उच्च से उच्च कोटि के वैभव का न कभी कोई मूल्य रहा है और न होना ही चाहिए । समस्त भौतिक सम्पदाएं आत्मानन्द की तुलना में नगण्य, तुच्छ और नश्वर हैं ।"
प्राचार्य श्री की बात सुन कर प्रार्य स्थूलभद्र को अपनी भूल पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ । उन्होंने गुरुचरणों पर अपना मस्तक रखते हुए अनेक बार क्षमायाचनाएं कीं और बार-बार इस प्रतिज्ञा को दोहरा गये कि वे भविष्य में इस प्रकार की भूल कभी नहीं करेंगे। किन्तु प्राचार्य भद्रबाहु ने यह कहते हुए वाचना देने से इन्कार कर दिया कि अन्तिम चार पूर्वी के अनेक दिव्य विद्याओं एवं चमत्कारपूर्ण लब्धियों से श्रोत-प्रोत ज्ञान को धारण करने के लिये वह योग्य पात्र नहीं है ।
.
वस्तुस्थिति का बोध होते ही समस्त श्रीसंघ भी प्राचार्य भद्रबाहु की सेवा में उपस्थित हुआ और आचार्य श्री से बड़ी अनुनय-विनय के साथ प्रार्थना करने लगा कि आर्य स्थूलभद्र के अपराध को क्षमा कर के अथवा उसका उचित दण्ड दे कर उन्हें आगे के पूर्वो की वाचनाएं दी जायं ।
संघ की प्रार्थना को ध्यानपूर्वक सुनने के पश्चात् प्राचार्य भद्रबाहु ने कहा" वस्तुतः पूर्वज्ञान का योग्य पात्र समझ कर मैंने प्रार्य स्थूलभद्र को दो वस्तु कम १० पूर्व का अर्थ और पूर्ण विवेचन सहित ज्ञान दिया है । मैं यह भलीभांति जानता हूं कि बुद्धिबल, अध्यवसाय, धैर्य, गाम्भीर्य, वैराग्य, त्याग और विनय श्रादि जो गुण स्थूलभद्र में हैं, उस दृष्टि से इनकी तुलना करने वाला अन्य कोई दृष्टिगोचर नहीं होता । श्राप लोगों को चिन्तित प्रथवा दुःखित होने की प्राव'श्यकता नहीं । मैं जो आगे के चार पूर्वो की बाचनाएं इन्हें नहीं दे रहा हूं उसके पीछे एक बहुत बड़ा कारण है । यह तो सर्वविदित ही है कि प्रार्य स्थूलभद्र का जन्म महामन्त्री शकडाल के यहां हुआ है । इन्होंने कुमारावस्था में समस्त विद्याओं का अध्ययन कर उनमें निपुरगता प्राप्त की । रूप-लावण्यादि स्त्रियोचित सभी गुणों में सुरबाला के समान कोशा के लक्ष्मीगृह तुल्य सभी सामग्रियों से सम्पन्न एवं समृद्ध सुरम्य भवन में रहते हुए इन्होंने सुरोपम कामादि सभी सुखों 'का कोशा के साथ जी भर बारह वर्षों तक उपभोग किया । पितृमरण के पश्चात् मगधाधिपति नन्द द्वारा महामात्य पदग्रहण करने की प्रार्थना पर विचार करते
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
--
www.jainelibrary.org