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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग
[ एक विकट समस्या
हुए इन्होंने समस्त सांसारिक वैभव एवं मुखोपभोगादि को तुच्छ समझा । इन्हें तत्क्षरण संसार से उत्कट विरक्ति हो गई और तत्काल मगध के महामात्य पद को, अपने घर की तथा कोशा की अपार सम्पत्ति को और अपनी प्रेयसी कोशा तक को युवावस्था में त्याग कर संयम ग्रहरण कर लिया । गुरू की प्राज्ञा ले कर चार मास तक षड्स भोजन करते हुए निरन्तर कोशा के एकान्त संसर्ग में रह कर भी संयम मार्ग पर मेरू गिरी की तरह स्थिर रहे । अजेय कामदेव पर इनकी इस महान् विजय के उपलक्ष में आचार्य संभूतविजय ने इन्हें 'दुष्कर - दुष्करकारकः' की उपाधि से विभूषित किया ।"
इस प्रकार का महान् त्यागी, उच्चकोटि का मनोविजयी, दश पूर्वों के ज्ञान का धारक यह कुल-सम्पन्न व्यक्ति भी अपने शक्ति प्रदर्शन के लोभ का संवरण नहीं कर सका तो अन्य साधारण लोग तो उन दिव्य विद्याओं, शक्तियों और लब्धियों को प्राप्त कर किस प्रकार पचा सकेंगे, इसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती ।
अब भविष्य में ज्यों-ज्यों काल व्यतीत होता जायगा त्यों-त्यों क्षण-क्षण में रुष्ट हो जाने वाले, प्रविनीत और गुरू की अवज्ञा करने वाले स्वल्पसत्वधारी श्रमण होंगे। उन मुनियों के पास यदि इस प्रकार की महाशक्तिशालिनी विद्याएं चली गईं तो वे क्षुद्रबुद्धि वाले श्रमरण साधारण से साधारण बात पर किसी से क्रुद्ध हो कर चार प्रकार की विद्याओं के बल से लोगों का अनिष्ट कर अपने संयम से पतित हो सर्वनाश तक करने पर उतारू हो जायेंगे और इस प्रकार के उन दुष्ट कर्मों के फलस्वरूप अनन्त काल तक संसार में भ्रमरण करते रहेंगे ।
ऐसी दशा में सभी दृष्टियों से श्रेयस्कार यही है कि शेष चार पूर्वो का ज्ञान अब भविष्य में लोगों को न दिया जाय ।"
इस पर आर्य स्थूलभद्र ने कहा- "आप जो फरमा रहे हैं, वह ठीक है परन्तु श्राने वाली पीढ़ियां यही कहेंगी कि स्थूलभद्र की भूल के कारण अंतिम
रायकुलसरिसभूते, सगडालकुलम्मि एस संभूतो । गेहगम्रो चेव पुणो, विसारश्र सव्वसत्थेसु ||६ सो कुलघरस सिद्धि, गणियावरसंतियं च सामिद्धि । पाण पुरणो वेडं, गातिरणगरा भरणवयक्खा ||८७|| जो एवं पुब्ववि, एवं सज्झायझाणउज्जुत्तो, गारव करणेरण हिश्रो, सीलभ रूव्वहरणधारणया ||८८ || 3 जह जह एही काले, तह तह अप्पावराहसंरद्धा । अणगारा पडणीए, निसंसय वट्टवेहिति ॥ ८६ ॥ . उप्पायरणीहि प्रवरे, केई विज्जाए इत्तरणं । उ व्हिविज्जाहि इट्ठाहि काहि उड्डाहं ॥६०॥ तेहि यहि य कुच्छियविज्जाहिं तेा निमित्तेरणं । कारण उवज्झायं, भमिही सो गंतसंसारे ।
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[ तित्थोगा लियपना ]
[ वही ]
[ वही ]
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