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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [अद्भुत् कला-कौशल पर कोशा को किंचित्मात्र भी आश्चर्य नहीं हुआ । वह रथिक के गर्व को चूर्ण करने की इच्छा से यह कहते हुए उठी - "अव तुम मेरी कला का चमत्कार देखो।” कोशा ने अपनी दासियों को कह कर उस विशाल कक्ष के प्रांगण के बीचोंबीच सरसों का एक ढेर लगवाया । गुलाब के फूल की कतिपय पंखुड़ियों को सुई से वेध कर कोशा ने उस सर्पपराशि पर डाल दिया। तदनन्तर कोशा ने सर्षपराशि पर नृत्य प्रारम्भ किया। अपनी सधी हई सुकोमल देहयष्टि को यथेप्सित रूप से झुकाती, झुमाती हुई वह भूरे बादलों पर चपला की अनवरत चमक की तरंह सर्पपराशि पर एक घटिका पर्यन्त नृत्य करती रही। प्रत्यद्भुत, परम मनोहारि होने के साथ-साथ कोशा के नृत्य- कौशल की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इतने लम्बे समय के नृत्य से भी न कहीं से वह सर्षपराशि खण्डित हई और न सूई ही उसके पैर में कहीं चुभी। __कोशा के नृत्य की समाप्ति पर भी रथिक चित्रलिखित सा अवाक् कोशा की ओर देखता ही रह गया । कतिपय क्षणों के पश्चात् थोड़ा प्रकृतिस्थ होने पर रथिक ने कोशा को सम्बोधित करते हुए कहा - "भद्रे ! किसी भी मानवी द्वारा दुस्साध्यं तुम्हारे इस चमत्कारपूर्ण अत्यद्भुत, अतिसुन्दर नृत्य को देख कर मुझे अभूतपूर्व आनन्द का अनुभव हो रहा है। तुम जो कुछ मांगना चाहती हो वह मुझसे मांग लो, मैं इसी समय तुम्हारी वह अभीप्सित वस्तु तुम्हें दूंगा।"
कोशा ने कहा - "भद्र ! न तुम्हारा यह लुम्बिछेदन ही दुष्कर है और न मेरा सर्पप-सूची पर नृत्य ही। निरन्तर अभ्यास करने पर इनसे भी अत्यधिक कठिन कार्य किये जा सकते हैं। वस्तुतः दुष्करातिदुष्कर कार्य तो प्रार्य स्थूलभद्र ने किया है कि वारह वर्षों तक मेरे साथ यहां विविध कामोपभोगों का उपभोग करते रहे किन्तु दीक्षित होने के पश्चात् चार मास तक पडस भोजन करते हुए मेरे साथ इस चित्रशाला में संयमपूर्वक रह कर उन्होंने अजेय कामदेव पर विजय प्राप्त की। उन कामविजयी महान योगी स्थूलभद्र के चरित्र से प्रेरणा लेकर मैंने भी श्राविका-व्रत अंगीकार किया है। संसार का प्रत्येक पुरुष अब मेरे लिये सहोदर के समान है।"
कोशा की बात सुन कर रथिक निषण्ण रह गया । कोशा से मुंनि स्थूलभद्र का परिचय प्राप्त कर वह संसार से विरक्त हो गया और उनके पास दीक्षित हो धमरणाचार का पालन करने लगा। प्रार्य स्थूलभद्र के इस प्रेरणाप्रद चरित्र ने न मालूम ऐसे कितने ही पतनोन्मुख प्राणियों का उद्धार किया होगा।
पाटलीपुत्र में हुई प्रथम प्रागम-वाचना
(वीर नि० सं० १६०) ग्राचार्य सम्भूतविजय के स्वर्गगमन से पूर्व मध्य देश में अनावृष्टिजन्य जो भीपगा दुप्काल पड़ा था, उसकी विभीषिका से बचने के लिये वहत से श्रमण दुःकाल से प्रभावित क्षेत्र का परित्याग कर सुदूरवर्ती क्षेत्रों की ओर चले गये।
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