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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [एक विकट समस्या प्राचार्य भद्रबाह ने निर्णयात्मक स्वर में कहा - "एक शर्त पर मैं वाचना देने को तैयार हैं। वह यह है कि जिस समय मैं महाप्राण ध्यान द्वारा प्रात्मसाधना में लगा रहूं उस समय मैं किसी से बात नहीं करूंगा और न उस समय और कोई मुझसे बात करे। ध्यान के पारण के पश्चात् मैं साधुओं को पूर्वो की प्रतिदिन ७ वाचनाएं दूंगा। एक वाचना गोचरी से लौटने के पश्चात्, तीन वाचनाएं तीनों कालवेलाओं में और तीन वाचनाएं सायंकाल के प्रतिक्रमण के पश्चात् दूंगा। इस प्रकार "मेरे ध्यान में भी किसी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं होगी और संघ के आदेश की पूर्ति भी हो जायगी।''
___श्रमण-संघाटक के मुखियों ने भद्रबाहु की इस शर्त को स्वीकार कर लिया और आर्य स्थूलभद्र ग्रादि ५०० मेधावी श्रमणों को प्राचार्य भद्रबाहु ने अपनी प्रतिज्ञानुसार पूर्वो की वाचना देना प्रारम्भ किया। विषय की जटिलता, दुरूहता अथवा यथेप्सित वाचनाएं न मिलने के कारण शनैः शनैः ४६६ पूर्व-ज्ञान के शिक्षार्थी-श्रमण हताश हो पढ़ना वन्द कर वहां से पाटलिपुत्र लौट गये पर पार्य स्थूलभद्र धैर्य, लगन एवं बड़े परिश्रम के साथ निरन्तर प्राचार्य भद्रबाहु के पास पूर्वो का अध्ययन करते रहे। इस प्रकार अपने द्वादशवाषिक महाप्राण ध्यान के अवशिष्ट काल में प्राचार्य भद्रबाहु ने ध्यान की साधना के साथ-साथ आर्य स्थूलभद्र को निरन्तर आठ वर्ष तक वाचनाएं दीं और उस आठ वर्ष की अवधि में आर्य स्थूलभद्र पाठ पूर्वो के ज्ञाता वन गये । आर्य स्थूलभद्र के धैर्य और ज्ञानपिपासा आदि गुणों से प्रसन्न हो कर प्राचार्य भद्रबाह ने एक दिन उनसे कहा"वत्स ! अब मेरे ध्यान की समाप्ति का समय सन्निकट ग्रा पहुंचा है। ध्यान के समाप्त हो जाने पर मैं तुम्हें यथेप्सित वाचनाएं देता रहूँगा।"
गुरुचरणों में मस्तक झुकाते हुए स्थूलभद्र ने पूछा – “भगवन् ! अब मुझे और कितना अध्ययन करना अवशिष्ट है ?"
प्राचार्य भद्रबाहु ने उत्तर में कहा - "सौम्य ! सिन्धु की अगाध जलराशि में से एक बूंद के तुल्य तुम्हारा अध्ययन सम्पन्न हुआ है । एक बिन्दु के अतिरिक्त अभी सिन्धु सम ज्ञान का अध्ययन अवशिष्ट है।"
१ "तम्मि य काले वारसवरिसो दुक्कालो उपट्टितो। संजता इतो-इतो य समुद्दतीरे
गच्छित्ता पुणरवि 'पाडलिपुत्ते' मिलिता। तेसिं अण्णस्स उद्देसो, अण्णस्स खंड, एवं संघाडितेहिं एक्कारस अंगाणि संघातितारिण दिठिवादो नत्थि । 'नेपाल' वत्तिणीए य भद्दबाहुसामी अच्छंति चोद्दसपुवी, तेसि संघेणं पत्थवितो संघाडो 'दिठिवाद' वाइंहि त्ति । गतो, निवेदितं संघकज्जं । तं ते भांति-दुक्कालनिमित्तं महापाणं न पविट्ठी मि तो न जाति वायां दातु। पडिनियत्तेहि संघस्स अक्खातं । तेहि अण्णो वि संघाडग्रो विसज्जितो, जो संघस्स पारणं प्रतिक्कमति तस्स को दंडो? तो अक्साई-उग्घाडिज्जड । ते भांति मा उग्घाडेह, पेसह मेहावी, सत्त पडिपुच्छगागिण देमि ।" ।
[अावश्यकरिण, भा० २, पृ० १०.]
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