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एक विकट समस्या दशपूर्वघर-काल : प्रायं स्थूलभद्र
४.७ आपकी सेवा में प्रार्थना के रूप में यह संदेश भेजा है कि आज श्रमणसंघ में आपके अतिरिक्त चतुर्दश पूर्वो का ज्ञाता और कोई अन्य श्रमण अवशिष्ट नहीं रहा है अतः श्रुतरक्षा हेतु आप योग्य श्रमरणों को चौदह पूर्वो का ज्ञान प्रदान करें।"
. आवश्यक चूणि और धर्मसागरकृत तपागच्छ पट्टावली के अनुसार पाटलिपुत्र से एक साधुनों का संघाटक भद्रबाह को लाने के लिये नेपाल भेजा गया । महाप्रागण ध्यान में संलग्न होने के कारण भद्रबाहु द्वारा संघाज्ञा के अस्वीकार किये जाने पर संघ ने दूसरा संघाटक भेजा। उस संघाटक ने भद्रबाह से पूछासंघ की आज्ञा न मानने वालों के लिये किस प्रकार के प्रायश्चित्त का विधान है ? भद्रबाहु ने कहा - "बहिष्कार । पर मैं महाप्राण ध्यान की साधना प्रारम्भ कर चुका हूँ, संघ मेरे ऊपर अनुग्रह करे और सुयोग्य शिक्षार्थी श्रमणों को यहां भेज दे । मैं उन्हें प्रतिदिन ७ वाचनाएं देता रहूंगा।" तदनन्तर संघ ने स्थूलभद्र आदि ५०० श्रमणों को भद्रबाहु के पास पूर्वज्ञान के अभ्यासार्थ भेजा, इस प्रकार का उल्लेख उपरोक्त ग्रन्थों में किया गया है।
पर तित्थोगालिय पइन्ना के अनुसार एक ही बार भेजे गए संघाटक द्वारा ही उपरिलिखित पूरी बातचीत व व्यवस्था की गई। संभव है संघाटक द्वारा भद्रबाह की ओर से स्वीकृति सूचक उत्तर पाने पर ही पाटलीपुत्र से साधु-समुदाय को नेपाल भेजा गया हो। तित्थोगाली का उल्लेख इस प्रकार है :
आगत श्रमणों से श्रमसंघ का संदेश सुन कर आचार्य भद्रबाह ने कहा"पूर्वो के पाठ प्रति क्लिष्ट हैं, उनकी वाचना देने के लिये पर्याप्त समय की अपेक्षा है। परन्तु मेरे जीवन का संध्याकाल समुपस्थित हो जाने के फलस्वरूप पर्याप्त समयाभाव के कारण मैं श्रमणों को पूर्वो की वाचनाएं देने में असमर्थ हूं। मेरी अब थोड़ी ही प्राय अवशिष्ट है, मैं प्रात्मकल्याण में व्यस्त हं, ऐसी दशा में इन . वाचनाओं के देने से मेरा कौन सा प्रात्म-प्रयोजन सिद्ध होगा?"
संघ की विनति को प्राचार्य भद्रबाहु द्वारा इस प्रकार ठुकराये जाने पर संघ की ओर से नियुक्त श्रमणों ने कुछ आवेशपूर्ण स्वर में भद्रबाहु से कहा "प्राचार्यप्रवर ! हमें बड़े दुःख के साथ आपसे यह पूछने को बाध्य होना पड़ रहा है कि संघाज्ञा के न मानने के परिणामस्वरूप क्या दण्ड प्राप्त होता है ?"'
प्राचार्य भद्रबाहु ने गम्भीरतापूर्ण स्वर में उत्तर दिया- "वीरशासन के नियमानुसार इस प्रकार का उत्तर देने वाला साधु श्रुतनिन्हव समझा जाकर संघ से बहिष्कृत कर दिया जाना चाहिये।"
इस पर साधु-संघाप्टक के मुखियों ने कहा- "प्राप संघ के सर्वोच्च नायक हैं । ऐसी दशा में बारह प्रकार के संभोगविच्छेद के नियम को जानते हुए भी माप पूर्वो की वाचना देना अस्वीकार किस प्रकार कर रहे हैं ?" ' सो भणति एव भरिणए भविसनो वीरवयणनियमेण । ... बम्वेवमो सुनिन्हको ति,......॥२५॥
[तित्योगालियपना]
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