________________
श्रीयक को विरक्ति] दशपूर्वधर-काल : आर्य स्थूलभद्र
४०३ दुष्कर्म के अनुरूप प्रतप्त शीशा पीकर मरना पड़ा। उसे उसके पाप का फल मिल चुका था। कर्म-रज्जू के निबिड़तम पाश में आबद्ध प्राणियों की मदारी के मर्कट के समान विचित्र लीलाएं देखकर श्रीयक को भी संसार के प्रपंचों से विरक्ति हो गई और उसने भी लगभग ७ वर्ष तक मगध के महामात्य पद का कार्यभार सम्भालने के पश्चात् अन्ततोगत्वा वीर नि० सं० १५३ में आचार्य संभूतविजय के पास श्रमण-दीक्षा ग्रहण करली । तत्कालीन संस्कृति में त्याग, तप की ओर इतना आकर्षण था कि महामात्य पद और लक्ष्मीदेवी को छोड़कर शकडाल के दोनों पुत्र और सातों कन्याएं दीक्षित हो गईं। कितना बड़ा त्यागानुराग ! .
आचार्य संभूतविजय और प्राचार्य भद्रबाहु के सम्मिलित आचार्य काल में भी एक सुदीर्घकाल का भीषण दुष्काल पड़ा। उस भीषण दुष्काल की. भयावह स्थिति के समय आचार्य संभूतविजय का वीर निर्वारण संवत् १५६ में स्वर्गवास हुआ। अपने ज्येष्ठ गुरुभ्राता आचार्य संभूतविजय के स्वर्गगमन के पश्चात् आचार्य भद्रबाहु ने संघ के संचालन की बागडोर पूर्णरूपेण अपने हाथ में सम्भाली। आर्य स्थूलभद्र आचार्य भद्रबाह की आज्ञानुसार विविध क्षेत्रों में धर्मप्रसार करते हुए विचरण करने लगे।
उन्हीं दिनों मगधपति नन्द ने अपने एक सारथी के रथसंचालन-कौशल पर प्रसन्न हो उसे पारितोषिक के रूप में कोशा-वेश्या प्रदान कर दी। अपने अन्तर्मन से अभिग्रहीत श्राविकावत पर संकटपूर्ण स्थिति आई समझकर कोशा ने बड़ी चतुराई से काम लिया। वह एक विरागिन की भांति हास-परिहास, शृगारालंकारादि प्रसाधनों का परित्याग कर सादे वेष में उदास मुखमुद्रा बनाये उस सारथी के समक्ष उपस्थित होती और प्रत्येक बार भार्य स्थूलभद्र की प्रशंसा करते हुए कहती - "इस संसार में वस्तुतः यदि कोई पुरुष है, तो वह मार्य स्थूलभद्र ही हैं । उनके अतिरिक्त मुझे अन्य कोई पुरुष दृष्टिगोचर नहीं होता।"
मद्भुत कला-कौशल . अपने प्रति विरक्ता कोषा को आकर्षित करने की दृष्टि से उस रथिक ने अपनी धनुर्विद्या का अद्भूत कौशल प्रदर्शित किया। उसने अपने धनुष की प्रत्यंचा पर सर-संधान कर पके हुए ग्रामों के गुच्छे में एक तीर मारा। तदनन्तर अति त्वरित वेग से हस्तलाघव प्रकट करते हुए उसने तीर पर तीर मारना प्रारम्भ किया। कुछ ही क्षरणों में तीरों की एक लम्बी पंक्ति बन गई और उस बाणावली का अन्तिम छोर उस रथिक से एक हाथ की दूरी पर रह गया। अब उसने एक अर्द्धचन्द्राकार बाग के प्रहार से उस टहनी को काट डाला, जिस पर कि वह प्रामों का झुमका लटक रहा था। इसके पश्चात् उसने उस तीरों की पंक्ति के अन्तिम तीर को अपने हाथ से पकड़ कर अपनी ओर खींचते हुए प्रामों के उस गुच्छे को अपने एक हाथ से पकड़कर कोशा को भेंट किया। रथिक अपने शस्त्रकौशल पर फूला नहीं समा रहा था।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org