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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [छेदः श्रुत० भद्रबाहु मुख से किसी भी दशा में प्रकट नहीं कर सकता । शान्त्याचार्य इस तथ्य से भलीभांति परिचित थे अतः अपनी इस प्रथम युक्ति की मौचित्यता और सबलता के सम्बन्ध में सशंक होने के कारण उन्होंने दूसरी यूक्ति यह दी- "यह भी अधिक संभव है कि द्वारगाथा से इस गाथा तक की सभी गाथाएं मूल नियुक्ति की गाथाएं न होकर भाष्य की गाथाएं हों। इनकी यह युक्ति तो वस्तुतः एक प्रकार से इस पक्ष को ही बल देती है कि नियुक्तियां चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु की कृतियां नहीं । वैसे इनकी इस युक्ति को चूणिकार का समर्थन भी प्राप्त नहीं है। शान्त्याचार्य स्वयं भी अपने अभिमत की सत्यता के सम्बन्ध में सशंक हैं।
ऐसी दशा में शान्त्याचार्य का यह अभिमत कि चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु ही नियुक्तिकार हैं, कैसे मान्य हो सकता है ?
७. श्रुकेवली भद्रबाहु नियुक्तिकार नहीं, इस पक्ष की पुष्टि हेतु सातवें प्रमाण के रूप में प्रावश्यक नियुक्ति की ७७८ से ७८३ तक की गाथानों को प्रस्तुत किया जाता है। इन गाथानों में भगवान् महावीर द्वारा तीर्थ प्रवर्तन के चौदहवें वर्ष से लेकर भगवान् महावीर के निर्वाण से ५८४ वर्ष पश्चात् हुए सात निन्हवों का तथा वीर नि० सं०६०६ में हुई दिगम्बर मतोत्पत्ति तक का वर्णन किया गया है। वीर नि० सं० १७० में स्वर्गस्थ होने वाले भद्रबाह द्वारा यदि नियुक्तियों की रचना की गई होती तो वी० नि० सं० ६०६ में हुई घटनामों का उनमें उल्लेख कदापि नहीं होता।
८. इसी प्रकार उत्तराध्ययन सूत्र की नियुक्ति (चतुरंगीय अध्ययन) की गाथा संख्या १६४ से १७८ में सात निन्हवों तथा दिगम्बर मत की उत्पत्ति का पावश्यक नियूंक्ति से भी विस्तृत विवरण दिया हुआ है।
६. दशवकालिक नियुक्ति और प्रोध नियुक्ति की गाथाओं में दशव'बहुरय पएस अन्वत समुच्छ दुग तिग प्रबद्धिगा चेव ।
सत्तेए पिण्हगा खलु तिथम्मि उ वद्धमाणस्स ।।७७८।। बहुरय जमालिपभवा जीवपएसा य तीसगुत्तायो । प्रवत्तासाढामो
समुच्छेयासमिसामो ।।७७६।। गंगाप्रो दो किरिया, छलुगा तेरासियाण उप्पत्ती। थेरा य गोट्ठमाहिल, पुट्ठमरदं पविति ।।७८०॥ सावत्थी उसमपुर सेयविया मिहिल उल्लुगातीरं । पुरिमंतरंजि रहवीरपुरं च गयराइं ॥७८१॥ चोद्दस सोलस वासा, चोइस वीसुत्तरा य दोणिसया । अट्ठावीसा य दुवे, पंचेव सया उ चोयालो ।।७८२।। पंचसया चुलसीया, छच्चेव सया रणवोत्तरा हुंति ।
णाणुपत्ती य दुवे उप्पण्णा निव्वुए सेसा ।।७८३।। [माव. नि.] २ प्रपुहुत - पुहुत्ताइं निहिसिउं एत्थ होइ अहिगारो।
चरणकरणारणुप्रोगेण, तस्स दारा इमे हुँति ।। [दशवकालिक नि०] . पोहेणउ णिज्जुत्ति, वुच्छं चरणकरणाणुप्रोगामो।
मप्पक्खरं महत्यं, मणुग्गहत्यं सुविहियाणं ।। [मोष-नियुक्ति]
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