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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [दीक्षा व वर० का मरण वररुचि के मद्यपी होने की सूचना प्राप्त होते ही महाराज नन्द बड़े क्रुद्ध हुए और उन्होंने उसके मद्यपी होने अथवा न होने का निर्णय करने के लिये परीक्षा करना आवश्यक समझा। एक दिन जब वररुचि राज्य सभा में आये तो उन्हें मदनफल के चूर्ण से युक्त कमल पुष्प संघने हेतु दिया गया। उसके संघते ही वररुचि को वमन हुप्रा और चन्द्रहास सुरा की तीव्र गन्ध राज्य सभा में तत्काल व्याप्त हो गई।
फलतः वररुचि का राजा, राजसभा, समाज और प्रजाजनों द्वारा बड़ा तिरस्कार हुया एवं वह बड़ी दुर्लक्ष्यपूर्ण स्थिति में अकाल में ही काल का कवल बन गया।
अपने पिता की हत्या करवाने वाले वररुचि की मृत्यु के पश्चात् श्रीयक कतिपय वर्षों तक बड़ी कुशलता के साथ मगध साम्राज्य के महामात्य पद के कार्यभार का निर्वहन करता रहा किन्तु उसके अन्तर में केवल राजनयिक प्रपंचों के प्रति ही नहीं अपितु समस्त सांसारिक कार्यकलापों के प्रति विरक्ति के बीज अंकुरित हो शनैः शनैः पल्लवित एवं पुष्पित होने लगे।
प्रार्य स्थूलभद्र द्वारा अतिदुष्कर अभिग्रह उधर ग्रहनिश अपने पाराध्य गुरुदेव के सानिध्य में रहते हुए सुतीक्ष्ण बुद्धि स्थूलभद्र मुनि ने अनवरत परिश्रम करते हुए सम्पूर्ण एकादशांगी पर आधिकारिक रूप से निष्णातता प्राप्त कर ली।।
वर्षाकाल समुपस्थित होने पर प्राचार्य सम्भूतविजय के सम्मुख उपस्थित होकर उनके तीन शिष्यों ने घोर अभिग्रहों को धारण करने की इच्छा प्रकट करते हए क्रमशः प्रार्थना की। प्रथम शिष्य ने सांजलि शीश झुका कर कहा - "प्रभो! मैं निरन्तर चार मास तक उपवास के साथ सिंह की गुफा के द्वार पर ध्यानमग्न रहना चाहता हूं।" दूसरे शिष्य ने निवेदन किया- "भगवन् ! मैं चार मास तक निर्जल एवं निराहार रहते हुए दृष्टिविष सर्प की बांबी के पास खडे रह कर कायोत्सर्ग करना चाहता हूं।"
तीसरे शिष्य ने कहा- "आराध्य गुरुवर ! यह आपका अकिंचन शिष्य कुएं के मांडके पर अपना पासन जमा कर उपवास पूर्वक निरन्तर चार मास तक ध्यानमग्न रहने की आपसे आज्ञा चाहता है।"
आचार्य सम्भूतविजय ने अपने उन तीनों शिष्यों को उनके द्वारा अभिग्रहीत दुष्कर कार्यों के निष्पादन के योग्य समझ कर उन्हें उनकी इच्छानुसार दुष्कर तपस्या करने की अनुमति प्रदान कर दी।
उस ही समय आर्य स्थूलभद्र मुनि ने अपने गुरु के चरणों में मस्तक झुकाते हुए हाथ जोड़ कर प्रार्थना की - "करुणासिन्धो! आपका यह अनन्य सेवक कोशा वेश्या के भवन की, कामोद्दीपक अनेक आकर्षक चित्रों से मण्डित चित्रशाला में षड्रस व्यंजनों का आहार करते हुए चार मास तक रह कर समस्त विकारों से दूर रहने की साधना करना चाहता है।"
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